"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 12-23": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टाविंश अधयाय: श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टाविंश अधयाय: श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
०६:५१, १५ अगस्त २०१५ का अवतरण
अष्टाविंश (29) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
जिन्होंने देवताओं में श्रेष्ठ स्थान पाने की इच्छा से तन्द्रारहित होकर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया था, वे महातेजस्वी बल-सूदन इन्द्र भी आलस्य छोड़कर (कर्मपरायण होकर ही) मेघर्गनाद्वारा आकाश तथा दिशाओं को गुंजाते हुए समय-समयपर वर्षा करते हैं। इन्द्र ने सुख तथा मन को प्रिय लगने वाली वस्तुओं का त्याग करके सत्कर्म के बल से ही देवताओं में ऊंची स्थिति प्राप्त की। उन्होंने सावधान होकर सत्य, धर्म, इन्द्रिय-संयम, सहिष्णुता, समदर्शिता तथा सबको प्रिय लगने वाले उत्तम बर्ताव का पालन किया था। इन समस्त सद्गुणों का सेवन करने का कारण ही इन्द्र को देवसम्राट का श्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार वृहस्पतिजी ने भी नियमपूर्वक समाहित एवं संयतचित्त होकर सुख का परित्याग करके समस्त इन्द्रियों को अपने वश में रखते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था। इसी सत्कर्म के प्रभाव से उन्होंने देवगुरू का सम्मानित पद प्राप्त किया है। आकाश के सारे नक्षत्र सत्कर्म के ही प्रभाव से परलोक में प्रकाशित हो रहे हैं। रूद्र, आदित्य, बसु तथा विश्वदेवगण भी कर्मबल से ही महत्त्व को प्राप्त हुए है। सूत! यमराज, विश्रवाके पुत्र कुबेर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सराएं भी अपने-अपने कर्मों के प्रभाव से ही स्वर्ग में विराजमान हैं। ब्रह्मज्ञान तथा ब्रह्मचर्य कर्म का सेवन करने वाले महर्षि भी कर्मबल ये ही परलोक में प्रकाशमान हो रहे हैं।
संजय! तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व तथा सम्पूर्ण लोकों-के इस सुप्रसिद्ध धर्म को जानते हो। तुम ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ ज्ञानी हो, तो भी तुम कौरवों की स्वार्थसिद्धि के लिये क्यों वाग्जाल फैला रहे हो? राजा युधिष्ठिर का वेद-शास्त्रों के साथ स्वाध्याय के रूप में सदा सम्बन्ध बना रहता है। इसी प्रकार अश्वमेंध तथा राजसूय आदि यज्ञों से भी इनका सदा लगाव है। ये धनुष और कवच से भी संयुक्त हैं। हाथी-घोडे़ आदि वाहनों, रथों और अस्त्र-शस्त्रों की भी इनके पास कमी नहीं है। ये कुन्तीपुत्र यदि कौरवों का वध किये बिना ही अपने राज्य की प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय जान लेंगे, तो भीमसेन के आग्रहपूर्वक आर्य पुरूषों के द्वारा आचरित सद्व्यवहार में लगाकर धर्मक्षारूप पुण्य के ही सम्पादन करेगे, तुम ऐसा (भलीभांति) समझ लो। पाण्डव अपने बाप-दादों के कर्म-क्षात्रधर्म (युद्ध आदि) में प्रवृत्त हो यथाशक्ति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए यदि दैववश मृत्यु को भी प्राप्त हो जायं तो इनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जायगी। यदि तुम शान्ति धारण करनाही ठीक समझते हो तो बताओ, युद्ध में प्रवृत्त होन से राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से? क्षत्रिय-धर्म का विचार करते हुए तुम जो कुछ भी कहोगे, मैं तुम्हारी वही बात सुनने को उद्यत हूं। सजंय! तुम पहले ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के विभाग तथा उनमें से प्रत्येक वर्ण के अपने-अपने कर्म का देख लो। फिर पाण्डवों के वर्तमान कर्मपर दृष्टिपात करो; तत्पश्चात् जैसा तुम्हारा विचार हो, उसके अनुसार इनकी प्रशंसा अथवा निन्दा करना। ब्राह्मण अध्ययन, यज्ञ एवं दान करे तथा प्रधान-प्रधान तीथों की यात्रा करें, शिष्यों को पढा़वे और यजमानों को यज्ञ करावे अथवा शास्त्रविहित प्रतिग्रह (दान) स्वीकार करे।
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