"महाभारत आदि पर्व अध्याय 182 श्लोक 1-12" के अवतरणों में अंतर

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==द्वयशीत्‍यधिकशततम (182 ) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)==
 
==द्वयशीत्‍यधिकशततम (182 ) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व:द्वयशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक1-12   का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व:द्वयशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
पाण्‍डवों का धौम्‍य को अपना पुरोहित बनाना अर्जुन ने कहा- गन्‍धर्वराज ! हमारे अनुरुप जो कोई वेदवेता पुरोहित हो, उनका नाम बताओ; क्‍योंक
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पाण्‍डवों का धौम्‍य को अपना पुरोहित बनाना अर्जुन ने कहा- गन्‍धर्वराज ! हमारे अनुरुप जो कोई वेदवेता पुरोहित हो, उनका नाम बताओ; क्‍योंकि तुम्‍हें सब कुछ ज्ञात हो। गन्‍धर्व बोला- कुन्‍तीनन्‍दन ! इसी वन के उत्‍कोचक तीर्थ में देवल के छोटे भाई धौम्‍य मुनि तपस्‍या करते हैं। यदि आप लोग चाहें तो उन्‍हीं का पुरोहित के पद पर वरण करें। वैशम्‍पायनजी कहते हैं-तब अर्जुन ने (बहुत) प्रसन्‍न होकर गन्‍धर्व को विधिपूर्वक आग्‍नेयास्‍त्र प्रदान किया ओर यह बात कही-। गन्‍धर्वप्रवर ! तुमने जो घोड़े दिये हैं, वे अभी तुम्‍हारे ही पास रहे । आवश्‍यकता के समय हम तुमसे ले लेंगे, तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अर्जुन की यह बात पूरी होने पर गन्‍धर्वराज और पाण्‍डवों ने एक-दूसरे का बड़ा सत्‍कार किया।फिर पाण्‍डवगण गंगा के रमणीय तट से अपनी इच्‍छा के अनुसार चल दिये । जनमेजय ! तदनन्‍तर उत्‍कोचक तीर्थ में धौम्‍य के आश्रम-पर जाकर पाण्‍डवों ने धौम्‍य का पौरोहित-कर्म के लिये वरण किया । सम्‍पूर्ण वेदों के विद्वानों में श्रेष्‍ठ धौम्‍य ने जंगली फल-मूल अर्पण करके तथा पुरोहित के लिये स्‍वीकृति देकर उन सबका सत्‍कार किया । पाण्‍डवों ने उन ब्राह्मण देवता को पुरोहित बनाकर यह भलीभांति विश्‍वास कर लिया कि हमें अपना राज्‍य और धन अब मिले हुए के ही समान है। साथ ही उन्‍हें यह भी भरोसा हो गया कि स्‍वयंवर में द्रौपदी हमें मिल जायगी। उन गुरु एवं पुरोहित के साथ हों जाने से उस समय भरतवंशियों में श्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ने अपने-आपको सनाथ-सा समझा।। उदारबुद्धि धौम्‍य वेदार्थ के तत्‍वज्ञ थे, वे पाण्‍डवों के गुरु हुए। उन धर्मज्ञ मुनि ने धर्मज्ञ कुन्‍तीकुमारों को अद्भुत यजमान बना लिया। धौम्‍य को यह विश्‍वास हो गया कि ये बुद्धि, वीर्य, बल और उत्‍साह से युक्‍त देवोपम वीर संगठित होकर स्‍वधर्म के अनुसार अपना राज्‍य अवश्‍य प्राप्‍त कर लेंगे। धौम्‍य के पाण्‍डवों के लिये स्‍वस्तिवाचन किया। तदनन्‍तर उन नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ने एक साथ द्रौपदी के स्‍वयंवर में जाने का निश्‍चय किया।
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इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथपर्व में पुरोहित बनाने में सम्‍बन्‍ध रखनेवाला एक सौ बयासीवां अध्‍याय पुरा हुआ।
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{{लेख क्रम|पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 181 श्लोक 14-26|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 183 श्लोक 1-20}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१२:१८, १६ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

द्वयशीत्‍यधिकशततम (182 ) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

महाभारत: आदि पर्व:द्वयशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

पाण्‍डवों का धौम्‍य को अपना पुरोहित बनाना अर्जुन ने कहा- गन्‍धर्वराज ! हमारे अनुरुप जो कोई वेदवेता पुरोहित हो, उनका नाम बताओ; क्‍योंकि तुम्‍हें सब कुछ ज्ञात हो। गन्‍धर्व बोला- कुन्‍तीनन्‍दन ! इसी वन के उत्‍कोचक तीर्थ में देवल के छोटे भाई धौम्‍य मुनि तपस्‍या करते हैं। यदि आप लोग चाहें तो उन्‍हीं का पुरोहित के पद पर वरण करें। वैशम्‍पायनजी कहते हैं-तब अर्जुन ने (बहुत) प्रसन्‍न होकर गन्‍धर्व को विधिपूर्वक आग्‍नेयास्‍त्र प्रदान किया ओर यह बात कही-। गन्‍धर्वप्रवर ! तुमने जो घोड़े दिये हैं, वे अभी तुम्‍हारे ही पास रहे । आवश्‍यकता के समय हम तुमसे ले लेंगे, तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अर्जुन की यह बात पूरी होने पर गन्‍धर्वराज और पाण्‍डवों ने एक-दूसरे का बड़ा सत्‍कार किया।फिर पाण्‍डवगण गंगा के रमणीय तट से अपनी इच्‍छा के अनुसार चल दिये । जनमेजय ! तदनन्‍तर उत्‍कोचक तीर्थ में धौम्‍य के आश्रम-पर जाकर पाण्‍डवों ने धौम्‍य का पौरोहित-कर्म के लिये वरण किया । सम्‍पूर्ण वेदों के विद्वानों में श्रेष्‍ठ धौम्‍य ने जंगली फल-मूल अर्पण करके तथा पुरोहित के लिये स्‍वीकृति देकर उन सबका सत्‍कार किया । पाण्‍डवों ने उन ब्राह्मण देवता को पुरोहित बनाकर यह भलीभांति विश्‍वास कर लिया कि हमें अपना राज्‍य और धन अब मिले हुए के ही समान है। साथ ही उन्‍हें यह भी भरोसा हो गया कि स्‍वयंवर में द्रौपदी हमें मिल जायगी। उन गुरु एवं पुरोहित के साथ हों जाने से उस समय भरतवंशियों में श्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ने अपने-आपको सनाथ-सा समझा।। उदारबुद्धि धौम्‍य वेदार्थ के तत्‍वज्ञ थे, वे पाण्‍डवों के गुरु हुए। उन धर्मज्ञ मुनि ने धर्मज्ञ कुन्‍तीकुमारों को अद्भुत यजमान बना लिया। धौम्‍य को यह विश्‍वास हो गया कि ये बुद्धि, वीर्य, बल और उत्‍साह से युक्‍त देवोपम वीर संगठित होकर स्‍वधर्म के अनुसार अपना राज्‍य अवश्‍य प्राप्‍त कर लेंगे। धौम्‍य के पाण्‍डवों के लिये स्‍वस्तिवाचन किया। तदनन्‍तर उन नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ने एक साथ द्रौपदी के स्‍वयंवर में जाने का निश्‍चय किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथपर्व में पुरोहित बनाने में सम्‍बन्‍ध रखनेवाला एक सौ बयासीवां अध्‍याय पुरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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