"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 157 श्लोक 1-26": अवतरणों में अंतर
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१०:४९, १७ सितम्बर २०१५ का अवतरण
सप्तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
जनमेजय ने पूछा—भगवान् ! भरतवंशियोंके पितामह गंगानन्दन महात्मा भीष्म सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ थे । समस्त राजाओंमें ध्वजके समान उनका बहुत ऊँचा स्थान था । वे बुद्धिमें बृहस्पिति, क्षमामें पृथ्वी, गम्भीरता में समुद्र, स्थिरता में हिमवान्, उदारता में प्रजापति और तेजीमें भगवान् सूर्य के समान थे। वे अपने बाणोंकी वर्षाद्वारा देवराज इन्द्र के समान शत्रुओंका विध्वंस करनेवाले थे। उस समय जो अत्यन्त भंयकर तथा रोमांचकारी रणयज्ञ आरम्भ हुआ था, उसमें उन्होनें जब दीर्घकालके लिये दीक्षा ले ली, तब इस महाबाहु युधिष्ठिर ने क्या कहा १ भीमसेन तथा अर्जुनने भी उसके बारे में क्या कहा १ अथ्वा भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना मत किस प्रकार व्यक्त किया ?
वैशम्पायनजीने कहा – राजन् ! आपद्धर्मके विषय में कुशल, वक्ताओंमें श्रेष्ठ, परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर ने उस समय सम्पूर्ण भाइयों तथा सनातन भगवान् वासुदेवको बुलाकर सान्त्वनापूर्वक इस प्रकार कहा तुम सब लोग सब ओर घूम-फिरकर अपनी सेनाओंका निरीक्षण करो और कवच आदिसे सुसज्जित होकर खडेहो जाओ। सबसे पहले पितामह भीष्मसे तुम्हारा युद्ध होगा । इसलिये अपनी सात अक्षौहिणी सेनाओंके सेनापतियोंकी देखभाल कर लो भगवान् श्रीकृष्ण बोले—भरतकुलभूषण ! ऐसा अवसर उपस्थित होनेपर आपको जैसी बात कहनी चाहिये, वैसी ही यह अर्थयुक्त बात आपने कही है महाबाहो ! मुझे आपकी बात ठीक लगती है ; अत: इस समय जो आवश्यक कर्तव्य है, उसका पालन कीजिये। अपनी सेनाके सात सेनापतियोंको निश्चित कर लीजिये वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! तदन्तर राजा द्रुपद, विराट, सात्यकि, पाञ्चालवीर शिखण्डी और मगध्राज सहदेव—इन सात युद्धाभिलाषी महाभाग वीरोंको युधिष्ठिरने विधिपूर्वक सेनापतिके पदपर अभिाषिक्त कर दिया और ध्रष्टद्युम्नको सम्पूण्र सेनाओंका प्रधान सेनापति बना दिया, जो द्रोणाचार्य का अन्त करनेके लिये प्रज्वलित अग्निसे उत्पन्न हुए थे । तदन्तर उन्होंने निद्राविजयी वीर धनंजयको उन समस्त महामना वीर सेनापतियों का भी अधिपति बना दिया अर्जुनके भी नेता और उनके घोडोंके भी नियन्ता हुए बलरामजी के छोटे भाई परम बुद्धिमान् श्रीमान् भगवान् श्रीकृष्ण राजन् ! तदन्तर उस महान् संहारकारी युद्धको अत्यन्त सनिकट और प्राय: उपस्थित हुआ देख नीले रंगका रेशमी वस्त्र पहने कैलाशशिखर के समान गौरवर्णवाले हलधारी महाबाहु श्रीमान् बलरामजी ने पाण्डवों के शिविर में सिंहके समान लीलापूर्वक गतिसे प्रवेश किया। उनके नेत्रोंके कोने मदनसे अरूण हो रहे थे। उनके साथ अक्रूर आदि यदूवंशी तथा गद, साम्ब, उद्भव, प्रद्युम्न, चारूदेष्ण तथा आहुकपुत्र आदि प्रमुख वृष्टिवंशी भी जो सिंह और व्याघ्रोंके समान अत्यन्त उत्कट बलशाली थे, उन सबसे सुरक्षित बलरामजी वैसे ही सुशोभित हुए, माना मरूद्रणोंके साथ महेन्द्र शोभा पा रहे हों उन्हें देखते ही धर्मराज युधिष्ठिर, महातेजस्वी श्रीक्रष्ण, भयंकर कर्म करनेवाले कुन्तीपुत्र भीमसेन तथा अन्य जो कोई भी राजा वहाँ विद्यमान थे, वे सब-के-सब उठकर खडे हो गये हलायुध बलरामजीको आया देख सबने उनका समादर किया । तदन्न्तर पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिरने अपने हाथसे उनके हाथका स्पर्श किया श्रीकृष्ण आदि सब लोगोंने उन्हें प्रणाम किया । तत्पश्चात् बूढे राज विराट और द्रुपद को प्रणाम करके शत्रुदमन बलराम युधिष्ठिर के साथ बैठे ।फिर उन सब राजाओं के चारों ओर बैठ जाने पर रोहिणी नन्दन बलरामने भगवान् श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए कहा- जान पडता है यह महाभयंकर और दारूण नरसंहार होगा ही । प्रारम्भके इसस विधानको मैं अटल मानता हूँ। अब इसे हटाया नहीं जा सकता ‘इस युद्धसे पार हुए आप सब सुह्रदोंको मैं अक्षत शरीरसे युक्त और नीरोग देखूँगा। ऐसा मेरा विश्वास है ।
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