"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 26": अवतरणों में अंतर
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कारण इस विषय में मनुष्य की बुद्धि अपना दोष आप ही ढूंढ़ निकालने की सावधानी सदा रख सकने में असमर्थ होती है; उसका स्वभाव ही किसी एकतरफरा सिद्धांत, विचार या तत्व ग्रहण कर उसी का मंडन करने और उसी को संपूर्ण सत्य के पाने की कुंजी बना लेना होता है और इस स्वभाव में अपने-आपको बढ़ाने की वृत्ति होती है जिसका कोई अंत नहीं है। अर्थात् मनुष्य बुद्धि में यह स्वरूपगत और पालित-पोषित दोष है, अपने कार्य में इस दोष को ढूंढ़ निकालने से इसकी दृष्टि फिरी रहती है। गीता के संबंध में इस प्रकार की गलती सहज रूप से होती है, क्योंकि इसके किसी भी एक पहलू को लेकर उसी पर खास जोर देकर अथवा इसकी किसी खास जोरदार श्लोक को लेकर उसी को आगे बढ़ाकर अठारहों अध्यायों को पीछे धकेलकर या उन्हें गौण और सहायक रूप करार देकर गीता को अपने ही मत या सिद्धांत का पोषक बना लेना आसान है। इस प्रकार कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्म-योग का प्रतिपादन ही नहीं है, बल्कि वे इसकी शिक्षा को संसार और सब कर्मों के संन्यास के लिये तैयार करने वाली एक साधना मानते हैं; नियत कर्मों को अथवा जो कोई कर्म आमने सामने आ पड़े उसको उदासीन होकर करना ही साधन या साधना है; संसार और सब कर्मों का अंत में सन्यास ही एकमात्र साध्य है। | कारण इस विषय में मनुष्य की बुद्धि अपना दोष आप ही ढूंढ़ निकालने की सावधानी सदा रख सकने में असमर्थ होती है; उसका स्वभाव ही किसी एकतरफरा सिद्धांत, विचार या तत्व ग्रहण कर उसी का मंडन करने और उसी को संपूर्ण सत्य के पाने की कुंजी बना लेना होता है और इस स्वभाव में अपने-आपको बढ़ाने की वृत्ति होती है जिसका कोई अंत नहीं है। अर्थात् मनुष्य बुद्धि में यह स्वरूपगत और पालित-पोषित दोष है, अपने कार्य में इस दोष को ढूंढ़ निकालने से इसकी दृष्टि फिरी रहती है। गीता के संबंध में इस प्रकार की गलती सहज रूप से होती है, क्योंकि इसके किसी भी एक पहलू को लेकर उसी पर खास जोर देकर अथवा इसकी किसी खास जोरदार श्लोक को लेकर उसी को आगे बढ़ाकर अठारहों अध्यायों को पीछे धकेलकर या उन्हें गौण और सहायक रूप करार देकर गीता को अपने ही मत या सिद्धांत का पोषक बना लेना आसान है। इस प्रकार कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्म-योग का प्रतिपादन ही नहीं है, बल्कि वे इसकी शिक्षा को संसार और सब कर्मों के संन्यास के लिये तैयार करने वाली एक साधना मानते हैं; नियत कर्मों को अथवा जो कोई कर्म आमने सामने आ पड़े उसको उदासीन होकर करना ही साधन या साधना है; संसार और सब कर्मों का अंत में सन्यास ही एकमात्र साध्य है। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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०७:४९, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
हम जानते हैं कि गीता मे गुरु भगवान् हैं, और हम देखते हैं कि शिष्य मानव है; अब यह बाकी है कि हमें गीता की शिक्षा की स्पष्ट धारणा हो जाये। यह स्पष्ट धारणा ऐसी होनी चाहिये कि गीता की मुख्य शिक्षा, उसका सार मर्म हमारी समझ में आ जाये, क्योंकि गीता में बहुमूल्य और बहुमुखी विचार होने के कारण तथा इसमें आध्यात्मिक जीवन के नानाविध पहलुओं का समालिंगन होने और इसका प्रतिपादन वेग युक्त चक्राकार गति होने के कारण सहज ही ऐसा हो जाता है कि लोग इसकी शिक्षा का, अन्य सद्ग्रंथों की अपेक्षा भी अधिक मात्रा में, पक्षपातयुत बुद्धि से पैदा हुआ एक पक्षीय भ्रांत निरूपण करने लगते हैं। किसी तथ्य, शब्द या भावना को ग्रंथ के अभिप्रेत तात्पर्य से, जाने-बेजाने अलग करके उससे अपने किसी पूर्वगृहीत विचार या शिक्षा अथवा अपनी पसंद का कोई सिद्धांत स्थापित करना भारतीय नैयायिकों की दृष्टि में हेत्वाभास का एक बड़ा ही सुगम प्रवंचक प्रकार है; और शायद यह एक ऐसा प्रकार है कि अत्यंत सावधान रहने वाले दार्शनिक कि लिये भी इससे बड़ा कठिन होता है।
कारण इस विषय में मनुष्य की बुद्धि अपना दोष आप ही ढूंढ़ निकालने की सावधानी सदा रख सकने में असमर्थ होती है; उसका स्वभाव ही किसी एकतरफरा सिद्धांत, विचार या तत्व ग्रहण कर उसी का मंडन करने और उसी को संपूर्ण सत्य के पाने की कुंजी बना लेना होता है और इस स्वभाव में अपने-आपको बढ़ाने की वृत्ति होती है जिसका कोई अंत नहीं है। अर्थात् मनुष्य बुद्धि में यह स्वरूपगत और पालित-पोषित दोष है, अपने कार्य में इस दोष को ढूंढ़ निकालने से इसकी दृष्टि फिरी रहती है। गीता के संबंध में इस प्रकार की गलती सहज रूप से होती है, क्योंकि इसके किसी भी एक पहलू को लेकर उसी पर खास जोर देकर अथवा इसकी किसी खास जोरदार श्लोक को लेकर उसी को आगे बढ़ाकर अठारहों अध्यायों को पीछे धकेलकर या उन्हें गौण और सहायक रूप करार देकर गीता को अपने ही मत या सिद्धांत का पोषक बना लेना आसान है। इस प्रकार कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्म-योग का प्रतिपादन ही नहीं है, बल्कि वे इसकी शिक्षा को संसार और सब कर्मों के संन्यास के लिये तैयार करने वाली एक साधना मानते हैं; नियत कर्मों को अथवा जो कोई कर्म आमने सामने आ पड़े उसको उदासीन होकर करना ही साधन या साधना है; संसार और सब कर्मों का अंत में सन्यास ही एकमात्र साध्य है।
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