"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 86": अवतरणों में अंतर
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ब्रहाविदयिों के आदर्श के हिसाब से यह केवल प्राथमिक साधन था ,उनके अनुसार मुनष्य का सच्चा पुरूषार्थ तो ब्रह्म के ज्ञान की ओर मुड़ने से आरंभ होता है और ब्रह्म के ज्ञान से ही उसे उस अकथनीय आध्यात्मिक आनंद का सच्चा अमर - पद प्राप्त होगा जो इस जगत् के क्षुद्रग सुखो से और किसी भी छोटे - मोटे परलोक से बहुत दूर है । वेद का वास्तकिव मूल और अभिप्राय जो कुछ भी रहा हो, पर यह भेद गीता के काल के बहुत पहले से स्थापित हो चुका था ओर इसलिये गीता को इसकी मीमांसा करनी पड़ी । कर्म और मन का समन्वय करते हुए भगवन् ने जो पहली बात कही, उसमें उन्होने वेदवाद की जोरदार, प्राय भयानक शब्दों में निंदा और भत्र्सना की है । उन्होनें कहा, “यह पुष्पिता या लच्छेदार भाषा वे बोलते हैं जिनकी बुद्धि ठिकाने नहीं, जो वेदवाद में ही रत है, जिनका मत यह है कि इसके सिवाय और कुछ है ही नहीं, जो कामात्मा है, स्वर्ग के अभिलाषी हैं, यह (वाणी) जन्मकर्म के फल देने वाली, विविध- विधिसंकुल कर्मो का विधान करने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की ओर ले जाने वाली है ।“<ref>2.43</ref> गीता स्वयं वेद पर आक्रमण करती - सी प्रतीत होती है, जिसका यद्यपि भारतीय समाज के व्यवहार में इस समय लोप ही हो गया है, तो भी भारतीय समाज की भावना में वेद अब भी समस्त भारतीय दर्शन - शास्त्रों और धर्मो का अतींद्रिय , अनुल्लघनीय, अत्यंत पवित्र और स्वत: सिद्ध प्रमाण और मूल है । | ब्रहाविदयिों के आदर्श के हिसाब से यह केवल प्राथमिक साधन था ,उनके अनुसार मुनष्य का सच्चा पुरूषार्थ तो ब्रह्म के ज्ञान की ओर मुड़ने से आरंभ होता है और ब्रह्म के ज्ञान से ही उसे उस अकथनीय आध्यात्मिक आनंद का सच्चा अमर - पद प्राप्त होगा जो इस जगत् के क्षुद्रग सुखो से और किसी भी छोटे - मोटे परलोक से बहुत दूर है । वेद का वास्तकिव मूल और अभिप्राय जो कुछ भी रहा हो, पर यह भेद गीता के काल के बहुत पहले से स्थापित हो चुका था ओर इसलिये गीता को इसकी मीमांसा करनी पड़ी । कर्म और मन का समन्वय करते हुए भगवन् ने जो पहली बात कही, उसमें उन्होने वेदवाद की जोरदार, प्राय भयानक शब्दों में निंदा और भत्र्सना की है । उन्होनें कहा, “यह पुष्पिता या लच्छेदार भाषा वे बोलते हैं जिनकी बुद्धि ठिकाने नहीं, जो वेदवाद में ही रत है, जिनका मत यह है कि इसके सिवाय और कुछ है ही नहीं, जो कामात्मा है, स्वर्ग के अभिलाषी हैं, यह (वाणी) जन्मकर्म के फल देने वाली, विविध- विधिसंकुल कर्मो का विधान करने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की ओर ले जाने वाली है ।“<ref>2.43</ref> गीता स्वयं वेद पर आक्रमण करती - सी प्रतीत होती है, जिसका यद्यपि भारतीय समाज के व्यवहार में इस समय लोप ही हो गया है, तो भी भारतीय समाज की भावना में वेद अब भी समस्त भारतीय दर्शन - शास्त्रों और धर्मो का अतींद्रिय , अनुल्लघनीय, अत्यंत पवित्र और स्वत: सिद्ध प्रमाण और मूल है । | ||
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०८:०४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
भक्ति की बड़ीमहिमा है , पर भक्ति- सहित कर्म का माहात्म्य भी कम नहीं; ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों के संयोग से जीव ईश्वर के परम पद को प्राप्त होता है और वहं उन पुरूषोत्तम में निवास करता है जो शाश्वत आध्यात्मिक शांति और शाश्वत विश्व - कर्मण्यता दोनों के स्वामी है। यही गीता का समन्वय है। परंतु सांख्य के ज्ञानमार्ग में और योग के कर्ममार्ग में जो भेद है उसके अतिरिक्त स्वयं वेदांत में भी वैसा ही एक दूसरा विरोध था और गीता को उसका भी विचार करना पड़ा, जिसे कि आर्य आध्यात्मिक संस्कृति की इस विशाल नवीन व्याख्या में उनकी त्रुटियों को दूर करके उनका मेल मिला दिया जाये। यह भेद था कर्मकांड और ज्ञानकांड के बीच ,उस मूल विचार के बीच जिसका पर्यवसान वेदवाद या पूर्वमीमांसा दर्शन में और ब्रह्मवाद या उत्तरमीमांसा दर्शन में हुआ। [१] यह भेद उन दो संप्रदायों के बीच था जिनमें से एक तो वैदिक मंत्रों और वैदिक यज्ञों की परंपरा में ही वास करता था और दूसरा इनको नीचे दरजे का ज्ञान बताकर इनकी उपेक्षा करता था और उपरनिषदों से निकले उत्कृष्ट आध्यात्मिक ज्ञान पर जोर देता था।
वेदवासियों की कर्मप्रधान बुद्धि में ऋषियों का आर्य धर्म यही था कि वैदिक यज्ञों को विधिपूर्वक संपन्न करके तथा पवित्र वैदिक मंत्रों का विशुद्ध प्रयोग करके इस लोक में संपत्ति, संतति , विजय , हर प्रकार का सौभाग्य आदि मुनष्य की काम्य वस्तुओं को प्राप्त किया जाये और परलोक में अमरत्व का आनंद लाभ किया जाये।
ब्रहाविदयिों के आदर्श के हिसाब से यह केवल प्राथमिक साधन था ,उनके अनुसार मुनष्य का सच्चा पुरूषार्थ तो ब्रह्म के ज्ञान की ओर मुड़ने से आरंभ होता है और ब्रह्म के ज्ञान से ही उसे उस अकथनीय आध्यात्मिक आनंद का सच्चा अमर - पद प्राप्त होगा जो इस जगत् के क्षुद्रग सुखो से और किसी भी छोटे - मोटे परलोक से बहुत दूर है । वेद का वास्तकिव मूल और अभिप्राय जो कुछ भी रहा हो, पर यह भेद गीता के काल के बहुत पहले से स्थापित हो चुका था ओर इसलिये गीता को इसकी मीमांसा करनी पड़ी । कर्म और मन का समन्वय करते हुए भगवन् ने जो पहली बात कही, उसमें उन्होने वेदवाद की जोरदार, प्राय भयानक शब्दों में निंदा और भत्र्सना की है । उन्होनें कहा, “यह पुष्पिता या लच्छेदार भाषा वे बोलते हैं जिनकी बुद्धि ठिकाने नहीं, जो वेदवाद में ही रत है, जिनका मत यह है कि इसके सिवाय और कुछ है ही नहीं, जो कामात्मा है, स्वर्ग के अभिलाषी हैं, यह (वाणी) जन्मकर्म के फल देने वाली, विविध- विधिसंकुल कर्मो का विधान करने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की ओर ले जाने वाली है ।“[२] गीता स्वयं वेद पर आक्रमण करती - सी प्रतीत होती है, जिसका यद्यपि भारतीय समाज के व्यवहार में इस समय लोप ही हो गया है, तो भी भारतीय समाज की भावना में वेद अब भी समस्त भारतीय दर्शन - शास्त्रों और धर्मो का अतींद्रिय , अनुल्लघनीय, अत्यंत पवित्र और स्वत: सिद्ध प्रमाण और मूल है ।
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