"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 109": अवतरणों में अंतर
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०८:०९, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
वेदवाद और वेदांतवाद के बीच जो विरोध है उसमें कर्म वैदिक कर्मो में ही परिसीमित हैं और कहीं - कहीं तो कर्म का अभिप्राय वैदिक यज्ञ और श्रौतकर्मो से ही है , बाकी सब कर्मो को मुक्तिमार्ग के लिये अनुपयुक्त् कहकर छोड़ दिया गया है । मीमांसको के वेदवाद ने इन कर्मो को मुक्ति का साधन मानकर इन पर जोर दिया और वेदांतवाद ने उपनिषदों पर आधार रखते हुए इनको केवल प्राथमिक अवस्था के लिये ही स्वीकार किया है और वह भी यह कहकर कि कर्म अज्ञान की अवस्था के हैं और अतं में इनका अतिक्रमण और त्याग ही करना होगा, क्योंकि मुमुक्षु के लिये कर्म बाधक हैं। वेदवाद यज्ञ के साथ देवताओं की पूजा करता और इन देवताओं को वे शक्तियां मानता है जो हमारी मुक्ति की सहायक हैं। वेदांतवाद के मत से ये सब देवता मानसिक और जड़प्राकतिक जगत् की शक्तियां हैं और हमारी मुक्ति में बाधक हैं (उपनिषदें कहती हैं कि मनुष्य देवताओं के ढोर हैं और देवता यह नहीं चाहते कि मनुष्य ज्ञानवान और मुक्त हो); इसने भगवान् को अक्षर ब्रह्म के रूप में देखा है और इसके अनुसार हम ब्रह्म को यज्ञकार्मो और उपासना - कर्मो के द्वारा नहीं , बल्कि ज्ञान द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
वेदांतवाद के मत से कर्म केवल भोतिक फल और निम्न कोटि का स्वर्ग देने वाले हैं; इसलिये कर्मो का त्याग करना ही होगा। गीता इस विरोध का समाधान इस सिद्धांत के प्रतिपादन से करती है कि ये देवता एक ही देव के , ईश्वर के , सब योगों, उपासनाओं , यज्ञों और तपों के परमेश्वर के ही केवल अनेक रूप हैं, और यदि यह सच है कि देवताओ को दिया हुआ हव्य भौतिक फल और स्वर्ग को देने वाला है , तो यह भी सच है कि ईश्वर- प्रीत्यर्थ किया हुआ यज्ञ इनसे परे ले जाने वाला और महान् मोक्ष देने वाला होता है । क्योंकि परमेश्वर और अक्षर ब्रह्म दो अलग - अलग सत्ताएं नहीं हैं , बल्कि दोनों एक ही हैं और इसलिये जो कोई इनमें से किसी को भी पाने की कोशिश करता है वह उसी एक भागवत सत्ता को पाने की कोशिश करता है। समस्त कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं, कर्म बाधा नहीं है , बल्कि परम ज्ञान के साधन हैं। इस प्रकार इस विरोध का भी यज्ञ शब्द के अर्थ को व्यापक दृष्टि से सुस्पष्ट करके समाधान किया गया है। यथार्थ में यह विरोध योग और सांख्य का जो बड़ा विरोध है उसी का संक्षिप्त रूप है; वेदवाद योग का ही एक विशिष्ट और मर्यादित रूप है; और वेदांतियों का सिद्धांत हू - ब - हू सांख्यों के सिद्धांत जैसा ही है क्योंकि दोनों के लिये ही मोक्ष प्राप्त करने की साधना है बुद्धि का प्रकृति की भेदत्माक शक्तियों से , अहंकार , मन और इन्द्रियों से से तथा आंतरिक और बाह्म विषयों से निवृत्त होकर निर्विशेष और अक्षर पुरूष मे वापस लौट आना । विभिन्न मतों का समन्वय साधन करने की इस बात को ध्यान में रखकर ही भगवान् गुरू ने यज्ञविषयक अपने सिद्धांत के कथन का उपक्रम किया है , परंतु इस संपूर्ण कथन में सर्वत्र , यहां तक कि एकदम आरंभ से ही, उनका ध्यान यज्ञ और कर्म के मार्यादित वैदिक अर्थ पर नहीं बल्कि उनकी उदार ओर व्यापक व्यवहार्यता पर रहा है गीता की दृष्टि सदां इन मतों की मर्यादित और ब्राह्म धारणाओं को विस्तृत करने और इन्होनें जिन महान बहुप्रचलित सत्यों को सीमित रूप दे रखा है उन्हें उनके सत्य स्वरूप मे प्रकट करने पर रही है।
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