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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

एक अर्थ में यह बात सही है, पर उस अर्थ में नहीं जिसमे कही जाती है; इस अर्थ में नहीं कि अहमात्मक जीव जो कुछ करता है उसकी जिम्मेदारी उसपर न हो और वह उसके फल से बच जाये; क्योंकि अहमात्मक जीव का अपना संकल्प है, उसकी अपनी कामना है, और जब तक वह अपने संकल्प और कामना के अनुसार कर्म करता है, चाहे उसकी प्रकृति वैसे ही क्यों न हो, उसे अपने कर्म की प्रतिक्रियाओं को भोगना ही पडे़गा। वह उस जाल में, यूं कहिये उस फंदे में जा फंसा है जो भले ही उसकी वर्तमान अनुभूति को, उसके मर्यादित आत्मज्ञान को दुर्बोध , युक्तिविरूद्ध , अनुचित और भयंकर मालूम हो, पर है यह फंदा उसकी अपनी ही पसंद का, यह जाल उसका अपना ही बुना हुआ है।गीता यह कहती अवश्य है कि ‘‘सब भूतप्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं, निग्रह करने से क्या होगा’’[१]और यदि हम अकेले इसी वचन को ले लें तो ऐसा दिखायी देगा मानों प्रकृति की सर्वशक्तिमत्ता का पुरूष पर असंभव रूप से संपूर्ण आधिपत्य है। ‘‘ ज्ञानवान् पुरूष भी अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करता है।’’[२] और इसीकी बुनियाद पर गीता का यह आदेश है कि सचाई के साथ अपने कर्मो के अंदर अपने स्वधर्म का पालन करो, ‘‘ अपना धर्म चाहे दोषयुक्त हो पर वह दूसरे के सुसंपादित धर्म से अच्छा है; स्वधर्म में मर जाना भला है, दूसरे के धर्म का पालन भयाभव है।
’’[३] इस स्वधर्म का वास्तविक अर्थ जानने के लिये हमें तबतक ठहरना होगा जबतक गीता के पिछले अध्यायों में किये गये पुरूष, प्रकृति और गुणों के विस्तृत विवेचन तक न पहुंच जायें, किंतु निश्चय ही इसका यह अर्थ तो नहीं है कि जिसे हम प्रकृति कहते हैं उसकी जो कोई भी प्रेरणा हो, चाहे वह अशुभ ही क्यों न हो, उसका पालन करना होगा। कारण इन दो श्लोकों के बीच में गीता ने यह आदेश भी तो दिया है कि , ‘‘ प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के अदंर रागद्वेष छिपे हुए हैं, उनके वश में न आना, क्योंकि ये आत्मा के रास्ते में लुटेरे हैं ।[४]और इसके बाद ही जब अर्जुन यह प्रश्न करता है कि प्रकृति का अनुसरण करने में जब कोई दोष नहीं है तो अपने अंदर की उस चीज को क्या कहें जो मनुष्य से, उसकी इच्छा और प्रयत्न के विरूद्ध , मानों बरबस पाप कराती है, तब भगवान् गुरू उत्तर देते हैं कि कामना और उसका साथी क्रोध - द्वितीय गुण, रजोगुण की संतान - ऐसा कराते हैं; और यह कामना आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है, इसे मार ही डालना होगा। गीता कहती है , पापकर्म का त्याग मुक्ति की पहली शर्त है और सर्वत्र गीता का यह आदेश है कि आत्मवशी और आत्मसंयमी बनो तथा मन, इन्द्रिय और संपूर्ण निम्न सत्ता को अपने वश में रखो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.33
  2. 3.33
  3. 3.35
  4. 3.34

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