"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 80": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

भगवान् कहते हैं ,निरे कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग बहुत अधिक श्रेष्ठ है, बुद्धियोग के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, मनुष्य जब रहित ब्राह्मी - स्थति की पवित्रता और समता को प्राप्त हेाता है तभी वह दान कर्मो को कर सकता है, जो भगवत्स्वीकार्य हो सकते हैं फिर भी कर्म मुक्ति के साधन है, किंतु वे ही कर्म जो इस प्रकार ज्ञान से विशुद्ध हुए हों । अर्जुन में उस समय की प्रचलित संस्कृति के विचार भरे हुए थे और इधर गुरू ने वैदांतिक सांख्य की जिन बातों पर जोर दिया अर्थात् इन्द्रियों पर विजय ,मन से हटकर आत्मा में निवास, ब्राह्मी स्थिति में आरोहण , अपने निम्न व्यक्तित्व का निव्र्यक्तितत्व में लय - योग के मुख्य विचार अभीतक गौण और अप्रकट हैं - इनसे अर्जुन की बुद्धि चकरा गयी । उसने पूछा कि, “ यदि आपका यह मत है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं ? आप अपनी व्यामिश्र बातों से मेरी बुद्धि को मोहित किये डालते है; निश्रित रूप से एक बात कहिये जिससे मैं श्रेय को प्राप्त कर संकू।“ इसके उत्तर में भगवान् यह बतलाते हैं कि सांख्य ज्ञान और संन्यास का मार्ग है और योग कर्म का ; परंतु योग के बिना अर्थात् जब तक समत्व - बुद्धि से , फलेच्छा रहित होकर, इस बात को जानते हुए कि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है आत्मा के द्वारा नहीं, जब तक कर्म यज्ञार्थ नहीं किया जाता तब तक सच्चे संन्यास का होना असंभव है; पर यह कहकर फिर तुरंत ही भगवान् यह भी कहते हैं कि ज्ञान यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ यज्ञ है, सब कर्म ज्ञान में ही परिसमाप्त होते है, ज्ञान की अग्नि से सब कर्म दग्ध हो जाते है; इसलिये जो पुरूष अपनी आत्मा को पा लेता है उसके कर्म योग के द्वारा संन्यस्त होते हैं और उसे कर्म का बंधन नहीं होता ।
अर्जुन की बुद्धि फिर चकरा जाती है ; क्योंकि निष्काम कर्म तो हुआ योग का सिद्धांत , और कर्म - संन्यास हुआ सांख्य का सिद्धांत , और दोनों ही सिद्धांत ,उसे एक साथ बताये जा रहे है मानों दोनों एक ही प्रक्रिया के दो भाग हों; पर इन दोनों में कोई मेल तो दीखता ही नहीं कारण जिस तरह का मेल पहले भगवन् गुरू बता चुके - अर्थात् बाह्म अकर्म में कर्म को होते हुए देखना और बाह्म कर्म में यथार्थ अकर्म को देखना, क्योंकि पुरूष अपने कर्ता होने का भ्रम त्याग चुका है और अपने कर्म यज्ञ के स्वामी के हाथों मे सौंप चुका है- वह मेल अर्जुन की व्यावहिकर बुद्धि के लिये इतना बारीक, इतना सूक्ष्म है और यह ऐसी पहेलीदार भाषा में प्रकट किया गया है कि अर्जुन इसके आशय को नहीं ग्रहण कर सका या कम – से- कम इसके मर्म और इसकी वास्तविकता तक नहीं पहुंच सका। इसलिये वह पूछता है कि , “हे कृष्ण , आप मुझे कर्म का सन्यास बता रहे हैं और फिर कहते है कि योग कर , तो इसमें कौन- सा मार्ग उत्तम है यह मुझे स्पष्ट रूप से निश्चित करके बताइये।“[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 5.1

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