"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 72": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-" to "भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. ") |
||
पंक्ति २३: | पंक्ति २३: | ||
</poem> | </poem> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन | {{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 71|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 73}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
१०:५१, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
अर्जुन की दुविधा और विषाद
28.कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।
उसका हृदय दया से भर आया और उसने उदास होकर कहाः स्वजनम्: उसके अपने लोग, सम्बन्धी। अर्जुन को कष्ट और चिन्ता हत्या के विचार से उतनी नहीं हुई, जितनी अपने सम्बन्धियों की हत्या के विचार से। साथ ही देखिए, अध्याय 1, श्लोक 31,37 और 45। सामान्यतया युद्धों के प्रति हमारा दृष्टिकोण यान्त्रिक-सा रहता है। और हम युद्ध से सम्बन्धित आंकड़ों में उलझ जाते हैं। परन्तु थोड़ी -सी कल्पना से हम इस बात को अनुभव कर सकते हैं कि किस प्रकार हमारे शत्रु भी मानव प्राणी हैं। वे भी पिता और पितामह हैं। उनके भी अपने वैयक्तिक जीवन हैं। उनकी भी अपनी इच्छाएं और आकाक्षाएं हैं। आगे चलकर अर्जुन पूछता है कि क्या इतना संहार कर देने के बाद प्राप्त हुई विजय किसी काम की होगी भी या नहीं। दे0अ01, श्लो0 36। अर्जुन का विषाद हे कृष्ण, अपने लोगों को अपने सामने युद्ध के लिए अधीर खडे़ देखकर,
29.सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ।।
मेरे अंग ढीले पड़ रहे हैं। मेरा मुँह सूख रहा है और रोंगटे खड़े हो रहे हैं।
30.गांडीवं स्त्रंसते हस्तात्वक्चैव परिह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।
गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से फिसला जा रहा है और मेरी सारी त्वचा में जलन हो रही है। मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता और मेरा मन चकरा-सा रहा है। अर्जुन के शब्दों से हमारे मन में एक ऐसे व्यक्ति के अकेलेपन का विचार आता है, जो सन्देह, विनाश के भय और खोखलेपन (निरर्थकता) से पीड़ित है, जिससे स्वर्ग और पृथ्वी की समृद्धि और मानवीय प्रेम का सुख छिना जा रहा है। यह असह्य विषाद सामान्यता उन सब लोगों को अनुभव होता है, जो वास्तविकता का (ब्रह्म) दर्शन करने के अभिलाषा होते हैं।
31.निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोअनुपश्चामि हत्वा स्वजनमाहवे।।
और हे केशव, मुझे अपशकुन दिखाई पड़ रहे हैं। इस युद्ध में अपने सम्बन्धियों को मारने से मुझे कोई भलाई होती दिखाई नहीं पड़ती। अपशकुनों की ओर अर्जुन का ध्यान जाना उसकी मानसिक दुर्बलता और अस्थिरता का सूचक है।
« पीछे | आगे » |