"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 32": अवतरणों में अंतर
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१०:५४, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
तब हम प्रकृति के इस नाटक से ऊपर उठ जाते हैं और उस वास्तविक आत्मा का दर्शन करते हैं, जिससे सृजनात्मक शक्तियां निकली हैं; हमारा सम्बन्ध उससे नहीं रहता, जिसे चलाया-फिराया जाता है और तब हम प्रकृति के हाथों में असहाय उपकरण नहीं रहते। तब हम उच्चतर जगत् के स्वतन्त्र सहभागी बन जाते हैं, जो निम्नतर जगत् में भाग ले रहे हैं। प्रकृति नियतिवाद की व्यवस्था है, परन्तु एक शुद्ध (बन्द) व्यवस्था नहीं है। आत्मा की शक्तियां उसे प्रभावित कर सकती हैं और उसकी गति की दिशा को मोड़ सकती हैं। आत्मा का प्रत्येक कार्य सृजनात्मक कार्य है, जब कि अनात्म के सब कार्य वस्तुतः निष्क्रिय हैं। हम मूल वास्तविकता के सम्मुख, अस्तित्व की गम्भीरताओं के सम्मुख, अपने आन्तरिक जीवन में ही आते हैं। कर्म का नियम अनात्म के क्षेत्र में पूरी तरह लागू होता है, जहां प्राणिशास्त्रीय और सामाजिक आनुवशिकता दृढ़ता से जमी हुई है।
परन्तु कर्ता में स्वाधीनता की सम्भावना है; प्रकृति के नियतिवाद पर, संसार की अनिवार्यता पर विजय पाने की सम्भावना है। कर्ता मनुष्य को वस्तु-रूपात्मक मनुष्य के ऊपर विजय प्राप्त करनी चाहिए। वस्तु बाहर से भाग्य नियत होने की द्योतक हैः कर्ता का अर्थ है—स्वतन्त्रता, अनिर्धारितता। जीव अपनी आत्मसीमितता में, अपनी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्वतः चालितता में सच्चे कर्ता का एक विकृत रूप है। कर्म के नियम पर आत्मा की स्वाधीनता की पुष्टि द्वारा विजय प्राप्त करी जा सकती है। गीता में कई स्थानों पर[१] यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि आधिदैविक और आधिभौतिक के बीच कोई आमूलतः द्वैत नहीं है। विश्व की वे शक्तियां, जिसका मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है, निम्नतर प्रकृति की प्रतिनिधि हैं। परन्तु उसकी आत्मा प्रकृति के घेरे को तोड़ सकती है और ब्रह्म के साथ अपने सम्बन्ध को पहचान सकती है। हमारा बन्धन किसी विजातीय तत्व पर आश्रित रहने में है। जब हम उससे ऊपर उठ जाते हैं, तब हम अपनी प्रकृति को आध्यात्मिक के अवतार के लिए माध्यम बना सकते हैं।
संघर्षों और कष्टों में से गुज़रकर मनुष्य अपनी अच्छे और बुरे में से चुनाव कर सकने की स्वतन्त्रता से ऊपर उठकर उस उच्चतर स्वतन्त्रता तक पहुँच सकता है, जो निरन्तर वरण की हुई अच्छाई में निवास करती है। मुक्ति आन्तरिक सत्ता, कर्तात्मकता, की ओर वापस लौट जाना है। बन्धन वस्तु-रूपात्मक जगत् का, आवश्यकता का, पराश्रितता का दास होना है। न तो प्रकृति और न समाज ही हमारे आन्तरिक अस्तित्व पर हमारी अनुमति के बिना आक्रमण कर सकता है। मानव-प्राणियों के सम्बन्ध में तो परमात्मा भी एक विलक्षण सुकुमारता के साथ कार्य करता है। वह मनाकर हमारी स्वीकृति प्राप्त करता है, परन्तु कभी हमें विवश नहीं करता। मानवीय व्यक्तियों की अपनी-अपनी अलग पृथक् सत्ताएं हैं, जो उनके विकास में परमात्मा के हस्तक्षेप को सीमित रहती हैं। संसार एक यान्त्रिक ढंग से किसी पहले से व्यवस्थित योजना को पूरा नहीं कर रहा। सृष्टि का उद्देश्य ऐसे आत्मों को उत्पन्न करना है, जो स्वेच्छा से परमात्मा की इच्छा को पूरा कर सकें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखिए 7, 5