महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक 33-38
त्रिषष्टयधिकशततम (163) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
राजन्। स्वर्गलोक तकफैले हुए उस प्रकाश से उद्बोधित होकर देवता, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय तथा सम्पूर्ण अप्सराएँ भी युद्ध देखने के लिये वहाँ आ पहुँचीं। देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों, असुरेन्द्रों और अप्सराओं के समुदाय से भरा हुई वह युद्धस्थल वहाँ मारे जाकर स्वर्गलोक पर अरुषञ होने वाले शूरवीरों के द्वारा दिव्यलोक सा जान पड़ता था। रथ, घोड़े और हाथियों से परिपूर्ण, प्रदीपों की प्रभा से प्रकाशित, रोष में भरे हुए योद्धाओं से युक्त, घायल होकर भागने वाले घोड़ों से उपलक्षित तथा व्यूहबद्ध रथ, घोड़े एवं हाथियों से सम्पन्न दोनों पक्षों का वह महान् सैन्यसमूह देवताओं और असुरों के सैन्यव्यूह के समान जान पड़ता था। रात में होने वाला वह युद्ध मेघों की घटा से आच्छादित दिन के समान प्रतीत होता था। उस समय शक्तियों का समूह प्रचण्डवायु के समान चल हा था। विशाल रथ मेघसमूह के समान दिखायी देते थे। हाथियों और घोड़ों के हींसने और चिग्घाड़ने का शब्द ही मानो मेघों का सम्भीर गर्जन था। अस्त्रसमूहों की वर्षा ही जल की वृष्टि थी तथा रक्त की धारा ही जलधारा के समान जान पड़ती थी। नरेन्द्र। जैसे शरत्काल में मध्यान्ह का सूर्य अपनी प्रखर किरणों से भारी संताप देता है, उसी प्रकार उस युद्थस्थल में महान् अग्नि के समान तेजस्वी महामना विप्रवर द्रोणाचार्य पाण्डवों के लिये संतापकारी हो रहे थे।
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