भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 82

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

                      
8.न कि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपतयम्।।

चाहे मुझे सारी पृथ्वी की धनसम्पन्न एवं प्रतिद्वन्द्वीहीन राज्य और देवताओं का स्वामित्व भी क्यों न मिल जाए, परन्तु मुझे ऐसी कोई वस्तु दिखाई नहीं पड़ती, जो मेरे इस शोक को दूर कर सके, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाए डाल रहा है। अर्जुन के मन के इस संघर्ष की चिकित्सा की जानी चाहिए। उसे एक नई सम्पूर्ण सर्वागीण चेतना प्राप्त करनी होगी।
                 
9.एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूवह।।

संजय ने कहा: इस प्रकार पराक्रमी गुडाकेश (अर्जुन) ने हृषीकेश (कृष्ण) से ऐसा कहने के बाद गोविन्द (कृष्ण) से ऐसा कहा कि मैं नहीं करूंगा और चुप हो गया। न योत्स्ये: ’मैं युद्ध नहीं करूंगा।’ ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन ने गुरु की सलाह की प्रतीक्षा किये बिना इस विषय में अपना मन बना लिया है। वह गुरु से उपदेश देने के लिए तो कहता है, परन्तु उसका मन उपदेश को ग्रहण करने के लिये खुला हुआ नहीं है। इस कारण गुरु का कार्य और भी कठिन हो जाता है। गोविन्द: इस शब्द द्वारा गुरु की सर्वज्ञता सूचित की गई है।[१]तूष्र्णी बभूव: चुप हो गया। सत्य का स्वर केवल शान्त होने पर ही सुना जा सकता है।

10.त्मुवाच हषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मथ्ये विषीदन्तमिदं वचः।।

हे भारत (धृतराष्ट्र), इस प्रकार दोनों सेनाओं के मध्य में विषादग्रस्त होकर बैठे हुए उस अर्जुन से हषीकेश (कृष्ण) ने हँसते-से हुए कहा-विषाद के उस क्षण में अर्जुन के डूबते हुए हृदय ने कृष्ण की दिव्यवाणी सुनी। हँसी इस बात की द्योतक है कि उसने अर्जुन के बुद्धिवाद के प्रति प्रयत्न को, या जिसे आजकल सतृष्ण चिन्तन कहा जाता है, उसे भाँप लिया था। रक्षक भगवान् का, जिसे कष्ट पाती हुई मानवता के समस्त पापों और दुःखों का ज्ञान है, रूख प्रेममय दया और उत्सुकतापूर्ण विवके का है। आत्मा और शरीर के भेद का निरूपदः हमें उसके शोक नहीं करना चाहिए, जो अनश्वर है।

11.अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादाश्च भाषसे।
गतासूनगतासूश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।

श्री भगवान् ने कहा: तू उनके लिए शोक रहा है, जिनके लिए तुझे शोक नहीं करना चाहिए और फिर भी तू ज्ञान की बातें करता है। ज्ञानी लोग मृतों के लिए या जीवितों के लिए शोक नहीं किया करते।कश्मीर के संस्करण में यह मिलता है: ’’तू बुद्धिमान व्यक्ति की तरह बात नहीं कर रहा’’: ’’प्राज्ञवन्नाभिभाषसे’’ ।[२] यहाँ गुरु 11 से लेकर 38 तक के श्लाकों में संक्षेप में सांख्यदर्शन के ज्ञान की व्याख्या करता है। यह सांख्य कपिल का सांख्यदर्शन नहीं है, अपितु अपनिषदों का सांख्यदर्शन है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यां वेदलक्षणां वाणीं विन्दतीति व्युत्पत्या सर्ववेदोपादानत्वेन सर्वज्ञम्।
  2. तुलना कीजिए, प्लोटिनसः ’’ हत्याएं, अपने सब स्वरूपों में मृत्यु, शहरों पर कब्जा करना और उन्हें नष्ट कर देना- यह सब रंगमंच पर होने वाला प्रदर्शन ही समझा जाना चाहिए। इतने सारे दृश्यों का परिवर्तन, एक नाटक का आतंक और चीत्कार, क्योंकि यहाँ भी जीवन के परिवर्तित होते हुए भाग्य में शोक और विषाद करने वाला वास्तविक मनुष्य, उसकी आन्तरिक आत्मा नहीं है, अपितु केवल मनुष्य की छाया है, बाहरी मनुष्य जो संसार के रंगमंच पर अपना अभिनय कर रहा है। ऐनीड्स 3,2,15। अंग्रेजी अनुवाद।

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