गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 70

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

इस सिद्धांत के अनुसार जगत् कारणस्वरूप कोई एक ही सत्ता नहीं है, बल्कि दो मूलतत्व है जिनका संयोग ही इस जगत् का कारण है - एक है पुरूष जो अकर्ता है और दूसरी है प्रकृति जो कत्री है । पुरूष आत्मा है ,साधारण और प्रचलित अर्थ में नहीं , बल्कि उस सचेतन सत्ता के अर्थ में जो अचल , अक्षर और स्वयं - प्रकाश है। प्रकृति है ऊर्जा और उसकी प्रक्रिया। पुरूष स्वयं कुछ नहीं करता ,पर वह ऊर्जा और उसकी प्रक्रिया को आभासित करता है; प्रकृति जड़ है पर पुरूष में आभसित होकर वह अपने कम में चैतन्य का रूप धारण कर लेती है और इस प्रकार सृष्टि , स्थिति और संहार अर्थात् जन्म , जीवन और मरण, चेतना और अवचेतना, इंद्रियगम्य और बुद्धिगम्य ध्यान तथा अज्ञान , कर्म और अकर्म , सुख और दु:ख, ये सब घटनाएं उत्पन्न होती है और पुरूष प्रकृति के प्रभाव में आकर इन सबको अपने ऊपर आरोपित कर लेता है । वास्तव में ये उसके अंग नहीं है बल्कि प्रकृति की क्रिया और गति के अंग हैं । प्रकृति त्रिगुणात्मिका है; सत्व ज्ञान का बीज है, यह ऊर्जा के कर्मो की स्थिति रखता है; रज शक्ति और कर्म का बीज है, यह शक्ति की क्रियाओं की सृष्टि करता है तमस जड़त्व और अज्ञान का बीज है, यह सत्त्व और रज का अपलाप है; जो कुछ वे सृष्टि करते तथा जिसकी वे स्थिति रखते हैं उसका यह संहार करता है । प्रकृति के ये तीन गुण जब साम्यवस्था में रहते हैं तब सब कुछ जहां - का - तहां पडा रहता है , कोई गति , कर्म या सृष्टि नहीं होती। इसलिये चिन्मय आत्म की अचर ज्योतिर्मय सत्ता में आभासित या प्रतिबिंबित होने वाली भी कोई वस्तु नहीं होती। पर जब यह साम्यावस्था विक्षुब्ध हो जाती है तब तीनों गुण परस्पर विषम हो उठते हैं और वे एक दूसरे से संघर्ष करते और एक- दूसरे पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयत्न करते हैं, और उसी से विश्व को प्रकटाने वाला यह सृष्टि , स्थिति और संहार का विरामरहित व्यापार आरंभ होता है ।
यह कर्म तब तक होता रहता है जब तक पुरूष अपने अंदर इस वैषम्य को , जो उसके सनातन स्वभाव को ढक देता और उस पर प्रकृति के स्वभाव को आरोपिज करता है, प्रतिभासित होने देता है । पर जब पुरूष अपनी इस अनुमति को हटा लेता है तब तीनों गुण फिर साम्यावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और पुरूष अपने सनातन अविकार्य अचल स्वरूप में लौट आता है , वह विश्व – प्रपंच से मुक्त हो जाता है । ऐसा लगता है कि अपने अंदर प्रकृति को आभासित होने देना और यह अनुमति देना या लौटा लेना ही पुरुष की एकमात्र शक्ति, है । प्रकृति को अपने अंदर आभासित देखने के नाते पुरूष गीता की भाषा में साक्षी और अनुमति देने के नाते अनुमंता है, पर सांख्य के अनुसार वह कर्ता रूप से ईश्वर नहीं है। उसका अनुमति देना भी निष्क्रीय है और उस अनुमति को लौटा लेना एक दूसरे प्रकार की निष्क्रीयता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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