महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 17-34

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पञ्चसप्तत्यधिकशततमो (175) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: पञ्चसप्तत्यधिकशततमो अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद

जैसे महान् पर्वत किसी महामेघ से संयुक्त हो जाये, उसी प्रकार अपने सारथि के साथ बैठे हुए घटोत्कच की शोभा हो रही थी। उसके रथ पर बहुत ऊँचा गगन-चुन्बिनी पताका फहरा रही थी, जिस पर एक लाल शिरवाला अत्यन्त भयंकर मांसभोजी गीध दिखायी देता था। वीरों का संहार करने वाली इस रात्रि में इन्द्र के वज्र की भाँति भयानक टंकार करने वाले और सुदृढ़ प्रत्यञ्चा वाले एक हाथ चौड़े एवं बाहर अरत्रि लंबे धनुषको खींचता और रथ के धुरे के समान मोटे बाणों से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करता हुआ घटोत्कच (पूर्वोक्त रथ पर आरूढ़ हो) कर्ण की ओर चला। रथ पर स्थिरतापूर्वक खड़े हो जब वह अपने धनुष को खींच रहा था, उस समय उसकी टंकार वज्र की गड़गड़ाहट के समान सुनायी देती थी। भारत! उस घोर शब्द से डरायी हुई आपकी सारी सेनाएँ समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरो के समान काँपने लगीं। विकराल नेत्रों वाले उस भयानक राक्षस को आते देख राधा पुत्र कर्ण ने मुसकराते हुए से शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़कर उसे रोका। जैसे एक यूथपति गजराज का सामना करने के लिये दूसरे यूथ का अधिपति गजराज चढ़ आता है, उसी प्रकार बाणों की वर्षा करते हुए घटोत्कच पर बाणों की बौछार करते हुए कर्ण ने उसके ऊपर निकट से आक्रमण किया। प्रजानाथ! राजन्! पूर्वकाल में जैसे इन्द्र और शम्बरासुर में युद्ध हुआ था, उसी प्रकार कर्ण और राक्षस का वह संग्राम बड़ा भयंकर हुआ। वे दोनों भयंकर टंकार करने वाले अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर बड़े-बड़े बाणों द्वारा एक दूसरे को क्षत-विक्षत करते हुए आच्छादित करने लगे। तदनन्तर वे दोनों वीर धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये झुकी हुई गाँवाले बाणों द्वारा परस्कर कांस्यनिर्मित कवचों को छिन्न-भिन्न करके एक दूसरे को रोकने लगे। जैसे दो सिंह नखों से और दो महान् गजरात दाँतों से परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों योद्धा रथशक्तियों और बाणों द्वारा एक दूसरे को घायल करने लगे। वे सायकों का संधान करके एक दूसरे के अंगों को छेदते और बाणमयी उल्काओं से दग्ध करते थे। उससे उन दोनों की ओर देखना अत्यन्त कठिन हो रहा था। उन दोनों के सारे अंग घावों से भर गये थे और दोनों ही खून से लथपथ हो गये थे। उस समय वे जल का स्त्रोत बहाते हुए गेरू के दो पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। दोनों के अंग बाणोंके अग्रभाग से छिदकर छलनी हो रहे थे। दोनों ही एक दूसरे को विदीर्ण कर रहे थे, तो भी वे महातेजस्वी वीर परस्कर विजय के प्रयत्न में लगे रहे और एक दूसरे को कम्पित न कर सके। राजन्! युद्ध के जूए में प्राणों की बाजी लगाकर खेलते हुए कर्ण और राक्षस का वह रात्रियुद्ध दीर्घकाल तक समान रूप में ही चलता रहा। घटोत्कच तीखे बाणों का संहार करके उन्हें इस प्रकार छोड़ता कि वे एक दूसरे से सटे हुए निकलते थे। उसके धनुष की टंकार से अपने और शत्रुपक्ष के योद्धा भी भय से थर्रा उठते थ। नरेश्वर! जब कर्ण घटोत्कच से बढ़ न सका, तब उस अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ वीर ने दिव्यास्त्र प्रकट किया। कर्ण को दिव्यास्त्र का संधान करते देख पाण्डवनन्दन घटोत्कच ने अपनी राक्षसी महामाया प्रकट की।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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