महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 1-16
पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन तथा कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम
ध्रुतराष्ट्र ने पूछा- संजय! आधी रात के समय सूर्य पुत्र कर्ण तथा राक्षस घटोत्कच जो एक दूसरे से भिड़े हुए थे, उनका वह युद्ध किस प्रकार हुआ? उस भयंकर राक्षस का रूप उस समय कैसा था? उसका रथ कैसा था? उसके घोड़े और सम्पूर्ण आयुध कैसे थे? उसके घोड़े कितने बड़े थे, रथ की ध्वजा की ऊँचाई और धनुष लम्बाई कितनी था? उसके कवच और शिरस्त्राण कैसे थे, संजय! मेरे प्रश्न के अनुसार ये सारी बातें बताओ; क्योंकि तुम इस कार्य में कुशल हो।
संजय ने कहा- राजन! घटोत्कच का शरीर बहुत बड़ा था। उसकी आँखें सुर्ख रंग की थीं। मुँह ताँबे के रंग का और पेट धँसा हुआ था। उसके रोएँ ऊपर की ओर उठे हुए थे, दाढ़ी-मूँछ काली थी, ठोड़ी बड़ी दिखायी देती थी। मुँह कानों तक फटा हुआ था, दाढ़ें तीखी होने के कारण वह विराल जान पड़ता था। जीभ और ओठ ताँबे के समान लाल और लम्बे थे, भौंहें बड़ी-बड़ी, नाक मोटी, शरीर का रंग काला, गर्दन लाल और शरीर पर्वताकार था। वह देखने मे बड़ा भयंकर जान पड़ता था। उसकी देह़ भुजा और मस्तक सभी विशाल थे। उसका बल भी महान् था। आकृति बेडौल थी। उसका स्पर्श कठोर था। उसकी पिंडलियाँ विकट एवं सुदृढ़ थीं। उसके नितम्ब भाग स्थूल थे। उसकी नाभि छोटी होने के कारण छिपी हुई थी। उसके शरीर की बढ़ती रुक गयी थी। वह लंबे कद का था। उसने हाथों में आभूषण पहन रक्खे थे। भुजाओं में बाजूबन्द धारण कर रक्खे थे। वह बड़ी-बड़ी मायाओं का जानकार था। वह अपनी छाती पर सुवर्णमय निष्क(पदक) पहनकर अग्नि की माला धारण किटे पर्वत के समान प्रतीत होता था। उसके मस्तक पर सोने का बना हुआ विचित्र उज्ज्वल मुकुट तोरण के समान सुशोभित हो रहा था। उस मुकुट की विविध अंगों से बड़ी शोभा हो रही थी। वह प्रभातकाल के सूर्य की भाँति कान्तिमान् दो कुण्डल, सोने की सुन्दर माला और काँसी का विशाल एवं चमकीला कवच धारण किये हुए था। उसके रथ में सैकड़ों क्षुद्र घण्टिकाओं का मधुर घोष होता था। उस पर लाल रंग की ध्वजा-पताका फहरा रही थी। उस रथ के सम्पूर्ण अंगों पर रीछ की खाल मढ़ी गयी थी। वह विशाल रथ चारों ओर से चार सौ हाथ लंबा था। उस पर सभी प्रकार के श्रेष्ठ आयुध रखे गये थे। उसमें आठ पहिये लगे थे और चलते समय उस रथ से मेघ-गर्चना के समान गम्भीर ध्वनि होती थीं। विशाल ध्वज उस रथ की शोभा बढ़ा रहा था। उसी पर घटोत्कच आरूढ़ था। मतवाले हाथी के समान प्रतीत होने वाले सौ बलवान् एवं भयंकर घोड़े उस रथ में जुते हुए थे। जिनकी आँखें लाल थीं तथा जो इच्छानुसार रूप धारण करने वाले और मनचाहे वेग से चलने वाले थे। उन घोड़ों के कंधों पर लंबे-लंबे बाल थे। वे परिश्रम को जीत चुके थे। वे सभी अपने विशाल केसरों (गर्दन के लंबे बालों) से सुशोभित थे और उस भयानक राक्षस का भार वहन करते हुए वे बारंबार हिनहिना रहे थे। दीप्तिमान् मुख और कुण्डलों से युक्त विरूपाक्ष नामक राक्षस घटोत्कच का सारथि था, जो रणभूमि में सूर्य की किरणों के समान चमकीली बागडोर पकड़कर उन घोड़ों को काबू में रखता था। उसके साथ रथ पर बैठक हुआ घटोत्कच ऐसा जान पड़ता था, मानो अरुण नामक सारथि के साथ सूर्यदेव अपने रथ पर विराजमान हों।
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