चतुरशीतितमो (84) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुरशीतितमो अध्याय: श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद
- भीष्मजी का अपने पिता शान्तनु के हाथ में पिण्ड ने देकर कुश पर देना, सुवर्ण की उत्पप्ति और उसके दान की महिमा के सम्बन्ध में वसिष्ठ और परशुराम का संवाद, पार्वती का देवताओं का शाप, तारकासुर से डरे हुए देवताओं का ब्रह्माजी की शरण में जाना ।
युधिष्ठिर ने कहा- आपने सब मनुष्यों के लिये विशेषतः धर्म पर दृष्टि रखने वाले नरेशों के लिये परम उत्तम गोदान का वर्णन किया। राज्य सदा ही दुःख रूप है। जिन्होंने अपना मन वश में नहीं किया है, उनके लिये राज्य को सुरक्षित रखना बहुत ही कठिन है। इसलिये प्रायः राजाओं को शुभगति नहीं प्राप्त होती। उनमें वे ही पवित्र होते हैं जो नियमपूर्वक प्रथ्वी का दान करते हैं। कुरुनन्दन ! आपने मुझसे समस्त धर्मों का वर्णन किया है। इसी तरह राजा नृग ने जो गोदान किया तथा नाचिकेत ऋषि ने जो गौओं का दान और पूजन किया था, वह सब आपने पहले ही कहा और निर्देष किया है। वेद और उपनिषदों ने भी प्रत्येक कर्म में दक्षिणा का विधान किया है। सभी यज्ञों में भूति, गौ और सुवर्ण की दक्षिणा बताई गयी है। इनमें सुवर्ण सबसे उत्तम दक्षिणा है, ऐसा श्रुति का वचन है। अतः पितामह ! मैं इस विषय को यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूं। सुवर्ण क्या है? कब और किस तरह से इसकी उत्पत्ति हुई? सुवर्ण का उपाधान क्या है? इसका देवता कौन है? इसके दान का फल क्या है? सुवर्ण क्यों उत्तम कहलाता है? मनीषी विद्वान सुवर्ण दान का अधिक आदर क्यों करते हैं? तथा यज्ञों, कर्मों में दक्षिणा के लिये सुवर्ण की प्रशंसा क्यों की जाती है? पितामह ! क्यों सुवर्ण पृथ्वी और गौंओं से भी पावन और श्रेष्ठ है? दक्षिणा के लिये सबसे उत्तम वह क्यों माना गया है?यह मुझे बताईये। भीष्मजी ने कहा- राजन ! ध्यान देकर सुनो। सुवर्ण की उत्पत्ति का कारण बहुत विस्तृत है। इस विषय में मैंने जो अनुभव किया है, उसके अनुसार तुम्हें सब बातें बता रहा हूं। मेरे महातेजस्वी पिता महाराज शान्तनु का जब देहावसान हो गया तब मैं उनका श्राद्ध करने के लिये गंगाद्वार तीर्थ (हरिद्वार) में गया । बेटा ! वहां पहुंचकर मैंने पिता का श्राद्धकर्म आरंभ किया। इस कार्य में वहां उस समय मेरी माता गंगा ने भी बड़ी सहायता की। तदनन्तर अपने सामने बहुत-से सिद्व-महर्षियों को बैठाकर मैंने जलदान आदि सारे कार्य आरंभ किये । एकाग्रचित्त होकर शास्त्रोक्त विधि से पिण्डदान के पहले के सब कार्य समाप्त करके मैंने विधिवत पिण्डदान देना आरंभ किया। प्रजानाथ ! इसी समय पिण्डदान के लिये जो कुश विछाये गये थे, उन्हें भेदकर एक बड़ी सुन्दर बांह बाहर निकली। उस विशाल भुजा में बाजूबंद आदि अनेक आभूषण शोभा पा रहे थे। उसे ऊपर उठी देख मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतश्रेष्ठ ! साक्षात मेरे पिता ही पिण्ड का दान लेने के लिये उपस्थित थे। प्रभो ! किंतु जब मैंने शास्त्रीय विधि पर विचार किया, तब मेरे मन में सहसा यह बात स्मरण हो आई कि मनुष्य के लिये हाथ पर पिण्ड देने पर वेद में विधान नहीं है। पितर साक्षात प्रकट होने पर कभी मनुष्य के हाथ से पिण्ड लेते भी नहीं हैं। शास्त्र की आज्ञा तो यही है कि कुशों पर पिण्डदान करें।भरतश्रेष्ठ ! यह सोचकर मैंने पिता के प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले हाथ का आदर नहीं किया। शास्त्र को ही प्रमाण मानकर उसकी पिण्डदान सम्बन्धी सूक्ष्म विधि का ध्यान रखते हुए कुशों पर ही सब पिण्डों का दान किया। नरश्रेष्ठ ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैंने शास्त्रीय मार्ग का अनुसरण करके ही सबकुछ किया। नरेश्वर ! तदनन्तर मेरे पिता की वह बांह अदृश्य हो गयी। तदनन्तर स्वप्न में पितरों ने मुझे दर्शन दिया और प्रषन्नतापूर्वक मुझसे कहा- भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारे इस शास्त्रीय ज्ञान से हम बहुत प्रसन्न हैं; क्योंकि उसके कारण तुम्हें धर्म के विषय में मोह नहीं हुआ। ‘पृथ्वीनाथ। तुमने यहां शास्त्र को प्रमाण मानकर, आत्मा, धर्म, शास्त्र, वेद, पितृगण, ऋषिगण, गुरू, प्रजापति और ब्रह्माजी- इन सबका मान बढाया है तथा जो लोग धर्म में स्थित हैं उन्हें भी तुमने अपना आदर्श दिखाकर विचलित नहीं होने दिया है।‘भरतश्रेष्ठ ! यह सब कार्य तो तुमने बहुत उत्तम किया है; किंतु अब हमारे कहने से भूमिदान और गोदान के निष्क्रिय रूप से कुछ सुवर्णदान भी करो। ' धर्मज्ञ। ऐसा करने से हम और हमारे सभी पितामह पवित्र हो जायेंगे;क्योंकि सुवर्ण सबसे अधिक पावन वस्तु है ।' ‘जो सुवर्णदान करते हैं, वे अपने पहले और पीछे की दस-दस पीढियों का उद्धार कर देते हैं।’ राजन ! जब मेरे पितरों ने ऐसा कहा तो मेरी नींद खुल गयी। उस समय स्वप्न का स्मरण करके मुझे बड़ा विस्मय हुआ। प्रजानाथ !भरतश्रेष्ठ ! तब मैंने सुवर्णदान करने का निश्चित विचार कर लिया। राजन ! अब (सुवर्ण की उपत्ति और उसके महात्म्य के विषय में) एक प्राचीन इतिहास सुनो जो जमदग्नीनन्दन परशुराम जी से सम्बन्ध रखने वाला है। विभो ! यह आख्यान धन तथा आयु की वृद्वि करने वाला है। पूर्वकाल की बात है, जमदग्नीकुमार परशुराम जी ने तीव्र रोष में भरकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर दिया था। महाराज ! इसके बाद सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर वीर कमलनयन परशुराम जी ने कामनाओं को पूर्ण करने वाले अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गोलाक का वर्णन विषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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