महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 श्लोक 1-19

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पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

स्वर्ग और नरक तथा उत्तम और अधम कुल में जन्म की प्राप्ति कराने वाले कर्मों का वर्णन

पार्वती ने पूछा- भगवन्! मनुष्य किस प्रकार के शील, कैसे सदाचार और किन कर्मों से युक्त होकर अथवा किस दान के द्वारा स्वर्ग में जाता है। श्री महेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य ब्राह्मणों का सम्मान ओर दान करता है, दीन, दुःखी और दरिद्र आदि मनुष्यों को भष्य-भोज्य, अन्न-पान और वस्त्र प्रदान करता है, ठहरने के स्थान, धर्मशाला, कुआँ, प्याऊ, पोखरी या बावड़ी आदि बनवाता है, लेने वाले लोगों की इच्छा पूछ-पूछकर नित्य देने योग्य वस्तुएँ दान करता है, समस्त नित्य कर्मों का अनुष्ठान करता है, आसन, शय्या, सवारी, गृह, रत्न, धन, धान्य, गौ, खेत और कन्याओं का प्रसन्नतापूर्वक दान करता है, देवि! ऐसा मनुष्य देवलोक में जन्म लेता है। वहाँ चिरकाल तक निवास करके उत्तम भोगों का भोग करते हुए नन्दन आदि वनों में अप्सराओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक रमण करता है। देवि! फिर वह स्वर्गलोक से नीचे आने पर मनुष्य जाति के भीतर महान् भोगों से सम्पन्न कुल में जन्म लेता है और धन-धान्य से सम्पन्न होता है। मानवयोनि में वह समस्त कमनीय गुणों से सम्पन्न एवं प्रसन्न होता है। उसके पास महान् भोगसामग्री संचित रहती है। उसका खजाना भी विशाल होता है। वह मनुष्य सभी दृष्टियों से धनवान् होता है। देवि! ये दानशील प्राणी ही ऐसे महान् सौभाग्य से सम्पन्न होते हैं। पूर्वकाल में ब्राह्माजी ने इनका ऐसा ही परिचय दिया है। दाता मनुष्य सभी की दृष्टि में प्रिय होते हैं।। देवि! दूसरे बहुत से मनुष्य दान देने में कृपण होते हैं। वे मन्दबुद्धि मानव ब्राह्मणों के माँगने पर अपने पास धन होते हुए भी उन्हें कुछ नहीं देते। वे दीनों, अन्धों, दरिद्रों, भिखमंगों और अतिथियों को देखते ही हट जाते हैं। उनके याचना करने पर भी जिव्हा की लोलुलता के कारण उन्हें अन्न नहीं देते। वे न धन, न वस्त्र, न भोग, न सुवर्ण, न गौ और न अन्न् की बनी हुई नाना प्रकार की खाद्य वस्तुओं का कभी दान करते हैं। देवि! ऐसे अकर्मण्य, लोभी, नास्तिक तथा दानधर्म से दूर रहने वाले बुद्धिहीन मनुष्य नरक में पड़ते हैं। यदि कालचक्र के फेर से वे मन्दबुद्धि मानव पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं तो निर्धन कुल में ही उत्पन्न होते हैं। वहाँ सदा भूख-प्यास का कष्ट सहते हैं। सब लोग उन्हें समाज से बाहर कर देते हैं तथा वे सब प्रकार के भोगों से निराश होकर पापाचार से जीविका चलाते हैं। देवि! इस पापकर्म से ही मनुष्य अल्प भोगवाले कुल में जन्म लेता है, थोड़े से ही भोग भोगते और सदा निर्धन रहते हैं। इनके सिवा दूसरे भी ऐसे मनुष्य हैं, जो सदा गर्व और अभिमान में फूले तथा पाप में रत रहते हैं। वे मूर्ख आसन देने योग्य पूज्य पुरूष को बैठने के लिये कोई पीढ़ा या चैकी तक नहीं देते हैं। वे बुद्धिहीन अथवा मन्दबुद्धि पुरूष मार्ग देने योग्य पुरूषों को जाने के लिये मार्ग नहीं देते और पाद्य अर्पण करने योग्य पूजनीय पुरूषों को पाद्य (पैर धोने के लिये जल) नहीं देते हैं। इतना ही नहीं, वे अध्र्य देने योग्य माननीय व्यक्तियों का नाना प्रकार के सत्कारों द्वारा विधिपूर्वक पूजन नहीं करते अथवा वे मूर्ख उन्हें अध्र्य या आचमनीय नहीं देते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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