महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-59
पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
मोक्ष धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन,मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्ति का उपाय और मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
तृष्णा के समान कोई दुख नहीं है, त्याग के समान कोई सुख नहीं है। समस्त कामनाओं का परित्याग करके मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। खोटी बुद्धि वाले मनुष्यों के लिये जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, जो मनुष्य के बूढ़े हो जाने पर स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग कहा गया है, उस तृष्णा का त्याग करने वाले को ही सुख मिलता है। भोगों की तृष्णा कभी भोग भोगने से शान्त नहीं होती, अपितु घी से प्रज्वलित होने वाली आग के समान अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। भोगों की प्राप्ति न होने से ही विद्वान् पुरूष शोक को त्याग देता है। आयासरूपी वृक्ष पर तीव्र वेग से प्रज्वलित और आकर्षणरूपी अग्नि से प्रकट हुई कामनारूप अग्नि मूर्ख मनुष्य को विषयों द्वारा मोहित करके जला डालती है। इस पृथ्वी पर जो धान, जौ, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब मिलकर एक पुरूष के लिये पर्याप्त नहीं हैं। ऐसा देखने और समझने वाला पुरूष मोह में नहीं पड़ता है। लोक में जो काम-सुख है और परलोक में जो महान् दिव्य सुख है- ये दोनों मिलकर तृष्णाक्षयजनित सुख की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते। धीर पुरूष अपनी इन्द्रियों को विषयों में न लगावे। मनसहित उनका संयम करके उन्हें सदा परमात्मा के ध्यान में नियुक्त करे। इन्द्रियों को खुली छोड़ देने से निश्चय ही दोष की प्राप्ति होती है और उन्हीं का संयम कर लेने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो परमात्म-चिन्तन में लगी हुई मनसहित छहों इन्द्रियों पर प्रभुत्व स्थापित कर लेता है, वह विद्वान् पापों और अनर्थों से संयुक्त नहीं होता है। विद्वान् पुरूष सावधान रहकर सदा अपनी इन्द्रियों की रक्षा करे, क्योंकि उनकी रक्षा न होने पर मनुष्य शीघ्र ही नरक में गिर जाता है। एक काममय वृक्ष है, जो मोह-संचयरूपी बीज से उत्पन्न हुआ है। वह काममय विचित्र वृक्ष हृदयदेश में ही स्थित है। अज्ञान ही उसकी मजबूत जड़ है। सकाम कर्म करने की इच्छा ही उसे सींचना है। रोष और लोभ ही उसका विशाल तना है। पाप ही उसका सार भाग है। आयास-प्रयास ही उसकी शाखाएँ हैं।तीव्रशोक पुष्प है, भय अंकुर है। नाना प्रकार के संकल्प उसके पत्ते हैं। यह प्रमाद से बढ़ा हुआ है। बड़ी भारी पिपासा या तृष्णा ही लता बनकर उस काम-वृक्ष में सब ओर लिपटी हुई है। अज्ञानी मनुष्य में ही यह काममय वृक्ष उत्पन्न होता और बढ़ता है। तत्वज्ञ पुरूष में यह नहीं अंकुरित होता है। यदि हुआ भी तो पुनः कट जाता है। यह काम कठिन उपायों से साध्य है, अनित्य है, उसके फल निःसार हैं, उसका आदि और अन्त भी दुखमय है, उससे सम्बन्ध जोड़ने में क्या अनुराग हो सकता है? शुभे! इन्द्रियाँ सदा जीर्ण हो रही हैं, आयु नष्ट होती चली जा रही है और मौत सामने खड़ी है- यह सब देखते हुए किसी को संसार में क्या सुख प्रतीत होगा? मनुष्य सदा शारीरिक और मानसिक व्याधियों से पीडि़त होता है और अपनी अधूरी इच्छाएँ लिये ही मर जाता है। अतः यहाँ कौन सा सुख है? मानव अपने मनोरथों की पूर्ति का उपाय सोचता रहता है और कामनाओं से अतृप्त ही बना रहता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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