महाभारत आदि पर्व अध्याय 123 श्लोक 32

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:०६, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==त्रयोविंशत्याधिकशततम (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रयोविंशत्याधिकशततम (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 32 का हिन्दी अनुवाद

शतश्रंग निवासी तपस्वी मुनि पाण्डुच के पुत्रों को जन्मआकाल से ही संरक्षण में लेकर अपने औरस-पुत्रों की भांति उनका लाड़-प्याीर करते थे। उधर द्वारका में वसुदेव आदि सब वृष्णिवंशी राजा पाण्डुल के विषय में इस प्रकार विचार कर रहे थे- अहो ! राजा पाण्डुं किंदम मुनि के शाप से भयभीत हो शतश्रृंग पर्वत पर चले गये हैं और वहीं ॠषि-मुनियों के साथ तपस्यार में तत्पणर हो पूरे तपस्वीश बन गये हैं। वे शाक, मूल और फल भोजन करते हैं, तप में लगे रहते हैं, इन्द्रियों को काबू में रखते हैं और सदा ध्याूनयोग का ही साधन करते हैं। ये बातें बहुत-से संदेश बाहक मनुष्यं बता रहे थे। यह समाचार सुनकर प्राय: सभी यदुवंशी उनके प्रेमी होने के नाते शोकमग्न रहते थे वे सोचते थे- कब हमें महाराज पाण्डुा का शुभ संवाद सुनने को मिलेगा। एक दिन अपनेभाई-बन्धुरओं के साथ बैठकर सब वृष्णिवंशी जब इस प्रकार पाण्डुज के विषय में कुछ बातें कर रहे थे, उसी समय उन्होंतने पाण्डुध के पुत्र होने का समाचार सुना। सुनते ही सब-के-सब हर्षविभोर हो उठे और परस्पथर सद्भाव प्रकट करते हुए वसुदेवजी से इस प्रकार बोले-

वृष्णियों ने कहा- महायशस्वीण वसुदेवजी ! हम चाहते हैं कि राजा पाण्डु के पुत्र संस्कासरहीन न हों; अत: आप पाण्डु के प्रिय और हित की इच्छा रखकर उनके पास किसी पुरोहित को भेजिये । वैशम्पाियनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब बहुत अच्छाि कहकर वसुदेवजी ने पुरोहित को भेजा; साथ ही उन कुमारों के लिये उपयोगी अनेक प्रकार की वस्त्राभूषण-सामग्री भी भेजी। कुन्तीो और माद्री के लिये भी दासी, दास, वस्त्राभूषण आदि आवश्याक सामान, गौऐं, चांदी और सुवर्ण भिजवाये। उन सब सामग्रियों को एकत्र करके अपने साथ ले पुरोहित ने वन को प्रस्था न किया। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले राजा पाण्डुग ने पुरोहित द्विजश्रेष्ठ काश्यलप के आने पर उनका विधिपूर्वक पूजन किया। कुन्तीय और माद्री ने प्रसन्न होकर वसुदेवजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की । तब पाण्डुध ने अपने पुत्रों के गर्भाधान से लेकर चूडाकरण और उपनयन तक सभी संस्कानर-कर्म करवाये। भारत ! पुरोहित काश्यापन ने उनके सब संस्काभर सम्पचन्न किये। बैलों के समान बड़े-बड़े नेत्रों वाले वे यशस्वीस पाण्डहव चूड़ाकरण और उपनयन के पश्चात उपाकर्म करके वेदाध्यपयन में लगे और उसमें पारंगत हो गये । भारत ! शर्यातिवंशज के एक पुत्र पृषत् थे, जिनका नाम था शुक । वे अपने पराक्रम से शत्रुओं को संतप्त करने वाले थे। उन शुक ने किसी समय अपने धनुष के बल से जीतकर समुद्रपर्यन्ते सारी पृथ्वी पर अधिकार कर लिया था। अश्वमेध- जैसे सौ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान एवं सम्पूकर्ण देवताओं तथा पितरों की आराधना करके परम बुद्धिमान् महात्माश राजा शुक शतश्रृंग पर्वत पर आकर शाक और फल–मूल का आहार करते हुए तपस्या करने लगे । उन्हीं तपस्वीे नरेश ने श्रेष्ठ उपकरणों और शिक्षा के द्वारा पाण्ड–वों की योग्यहता बढ़ायी। राजर्षि शुक के कृपा-प्रसाद से सभी पाण्डशव धनुर्वेद में पारंगत हो गये । भीमसेन गदा-संचालन में पारंगत हुए और युधिष्ठिर तोमर फेंकने में। र्धयवान् और शक्तिशाली पुरुषों में श्रेष्ठ दोनों माद्री पुत्र ढाल-तलवार चलाने की कला में निपुण हुए। परंतप सव्येसाची अर्जुन धनुर्वेद के पारगामी विद्वान् हुए। राजन् ! जब दाताओं में श्रेष्ठ शकु ने जान लिया कि अर्जुन मेरे समान धनुर्वेद के ज्ञाता हो गये, तब उन्होंीने अत्यीन्तय प्रसन्न होकर शक्ति, खड्ग, बाण, ताड़ के समान विशाल अत्य न्त चमकीला धनुष तथा विपाठ, क्षुर एवं नाराच अर्जुन को दिये। विपाठ आदि सभी प्रकार के बाण गीध की पांखों युक्त तथा अलंकृत थे। वे देखने में बड़े-बड़े सर्पों के समान जान पड़ते थे । इन सब अस्त्र-शस्त्रों को पाकर इन्द्रथ पुत्र अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अनुभव करने लगे कि भूमण्ड ल के कोई भी नरेश तेज में मेरी समानता नहीं कर सकते। शत्रुदमन पाण्ड वों की आयु में परस्पलर एक-एक वर्ष का अन्तेर था। कुन्तीा और माद्री दोनों देवियों के पुत्र दिन-दिन बढ़ने लगे । फि‍र तो जैसे जल में कमल बढ़ता है, उसी प्रकार कुरुवंश की वृद्धि करने वाले जो एक सौ पांच बालक हुए थे, वे सब थोड़े ही समय में बढ़कर सयाने हो गये ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।