गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 161

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गीता-प्रबंध
17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म

भगवान् के जन्म की तरह उस कर्म का भी , जिसके लिये अवतार हुआ करता है द्विविध भाव और द्विविध रूप होता है । क्रिया और प्रतिक्रिया के जिस विधान के द्वारा, उत्थान और पतनरूपी जिस सहज व्यवस्था के द्वारा प्रकृति अग्रसर होती है , उस विधान और विधान और व्यवस्था के होते हुए भागवत धर्म की रक्षा और पुनर्गठन के लिये इस बाह्म जगत् पर भागवत शक्ति की जो क्रिया होती है , वही दिव्य कर्म का बाह्म पहलू है , और यह भागवत धर्म की मानवजाति के भगवन्मुख प्रयास को समस्त विघ्न - बाधाओं से उबारकर निश्चित रूप से आगे बढ़ाता है इसका आंतर पहलू यह है कि भवन्मुख चैतन्य की दिव्य शक्ति व्यक्ति और जाति की आत्मा पर क्रिया करती है ताकि वह मानवरूप में अवतरिक भगवान् के नये - नये प्रकाश को ग्रहण कर सके और अपने ऊध्र्वमुखी आत्म - विकास की शक्ति को बनाये रख सके , उसमें एक नवजीवन ला सके ओर उसे समृद्ध कर सके। अवतार का अतरण केवल किसी महान् बाह्म कर्म के लिये नहीं होता जैसा कि मनुष्य की कर्म - प्रवण बुद्धि समझा करती है। कर्म और बाह्म घटना का अपने - आपको कोई मूल्य नहीं होता , उनका मूल्य उस शक्ति पर आश्रित है जिनकी ओर से वे होते हैं और उस भाव पर आश्रित है जिसके वे प्रतीक होते हैं और जिसे सिद्ध करना ही उस शक्ति का काम होता है। जिस संकट की अवस्था में अवतार का आभिभार्व होता है वह बाहरी नजर को महज घटनाओं और जड़ जगत् के महत्व परिवर्तनों का नाजुक काल प्रतीत होता है । परंतु उसे स्त्रोत और वास्तविक अर्थ को देखें तो यह संकट मानव - चेतना में तब आता है जब उसका कोई महान परिवर्तन , कोई नवीन विकास होने वाला हो। इस परिवर्तन के लिये किसी दिव्य शक्ति की आवश्यकता होती है, किंतु शक्ति जिस चेतना में काम करती है उसके बल के अनुसार बदलती है ; इसलिये मानव - मन और अंतरात्मा में भागवत चैतन्य का अविर्भाव आवश्यक होता है। जहां मुख्यतः बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन करना हो वहीं अवतार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती ; मानव - चेतना का उत्थान होता है, शक्ति की महान अभिव्यक्ति होती है जिसके फलस्वरूप सामयिक तौर पर मनुष्य अपनी साधारण अवस्था से ऊपर उठ जाते हैं और चेतना और शक्ति की यह लहर कुछ असाधारण व्यक्त्यिों में तरंग - श्रंग बन जाती है और इन्हीं असाधारण व्यक्तियों को विभूति कहते हैं ; इन विभूतियों का काम सर्वसाधारण मनानवजाति के कर्म का नैतृत्व करना है और यह उद्दिष्ट परिवर्तन के लिये पर्याप्त होता है। यूरोपीय पुनर्निर्माण और फ्रांस की राज्य - क्राति इसी प्रकार के संकट थे; महान् आध्यात्मिक घटनाएं , बल्कि बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन थे। एक में धार्मिक तथा दूसरे में सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं , रूपों और प्रेरकभावों का परिवर्तन हुआ और इसके फलस्वरूप जनसाधारण की चेतना में जो फेरफार हुआ वह बौद्धिक और लौकिक था , आध्यात्मिक नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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