महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 160-169

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प्रथम अध्‍याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 192-210

संजय ! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुन के सामने तो टिक न सके और सबने मिलकर बालक अभिमन्यु को घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होने लगे, जब यह बात मुझ तक पहुँची, तभी से मैंने विजय की आशा त्याग दी। जब मैंने सुना कि मेरे मूढ़ पुत्र अपने ही वंश के होनहार बालक अभिमन्यु की हत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुन ने क्रोधवश जयद्रथ को मार डालने की जो दृढ़़ प्रतिज्ञा की थी, उसने वह शत्रुओं से भरी रण भूमि में सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय ! तभी से मुझे विजय की सम्भावना नहीं रह गयी। युद्ध भूमि में धनंजय, अर्जुन के घोड़े अत्यन्त शांत और प्यास से व्याकुल हो रहे थे। स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें रथ से खोलकर पानी पिलाया, फिर से रथ के निकट लाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुन सहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यह बात सुनी, संजय ! तभी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब संग्राम भूमि में रथ के घोड़े अपना काम करने में असमर्थ हो गये, तब रथ के समीप ही खड़े होकर पाण्डव वीर अर्जुन ने अकेले ही सब योद्धाओं का सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय ! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान-सात्यकि ने अकेले ही द्रोणाचार्य की उस सेना को, जिसका सामना हाथियों की सेना भी नहीं कर सकती थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास पहुँच गये। संजय ! तभी से मेरे लिये विजय की आशा असम्भव हो गयी। संजय ! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्ण के पंजे में फँस गये थे, परंतु कर्ण ने तिरस्कार पूर्वक झिड़क कर और धनुष की नोक चुभाकर ही छोड़ दिया तथा भीमसेन मृत्यु के मुख से बच निकले। संजय ! तभी मेरी विजय की आशा पर पानी फिर गया। जब मैंने सुना द्रौणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वथामा तथा वीर शल्य ने भी सिन्धुराज जयद्रथ का वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। संजय ! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! देवराज इन्द्र ने कर्ण को कवच के बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी और उसने उसे अर्जुन पर प्रयुक्त करने के लिये रख छोड़ा था, परंतु मायापति श्रीकृष्ण ने भयंकर राक्षस घटोत्कच पर उसे छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजय की आशा टूट गयी। जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कच के युद्ध में कर्ण ने वह शक्ति घटोत्कच पर चला दी, जिससे रणांगण में अर्जुन का वध किया जा सकता था। संजय ! तब मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्र की मृत्यु के शोक से शस्त्रादि छोड़कर आमरण अनशन करने के निश्रय से अकेले रथ के पास बैठे थे और धृष्टद्युम्रने धर्म युद्ध की मर्यादा का उल्लघन करके उनहें मार डाला, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा जैसे वीर के साथ बड़े-बड़े वीरों के सामने ही माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय ! तभी मुझे जीत की आशा न रही। जब द्रोणाचार्य की हत्या के अनन्तर अश्वत्थामा ने दिव्य नारायणस्त्र का प्रयोग किया; परंतु उससे यह पाण्डवों का अन्त नहीं कर सका। संजय ! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि रणभूमि में भीमसेन ने अपने भाई दुःशासन का रक्तपान किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरूषों में से किसी एक ने भी निवारण नहीं किया। संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा बिल्कुल नहीं रह गयी। संजय ! वह भाई का भाई से युद्ध देवताओं की गुप्त प्रेरणा से हो रहा था। जब मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्ध भूमियों में कभी पराजित न होने वाले अत्यन्त शूरशिरोमणि कर्ण को पृथा पुत्र अर्जुन ने मार डाला, तब मेरी विजय की आशा नष्ट हो गयी। जब मैंने सुना धर्मराज युधिष्ठिर से द्रोण पुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन एवं उग्र योद्धा कृतवर्मा को भी युद्ध में जीत रहे हैं, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रह गयी। संजय ! जब मैंने सुना कि रणभूमि में धर्मराज युधिष्ठिर ने शूर्राशरोमणि मद्रराज शल्य को मार डाला, जो सर्वदा युद्ध में घोड़े हाँकने के सम्बन्ध में श्रीकृष्ण की होड़ करने पर उतारू रहता था, तभी से मैं विजय की आशा नहीं करता था। जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूत के मूल कारण, केवल छल-कपट के बल से बली पापी शकुनि को पाण्डु नन्दन सहदेव ने रणभूमि में यमराज के हवाले कर दिया, संजय ! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब दुर्योधन का रथ छिन्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक गया, तब वह सरोवर पर जाकर वहाँ का जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो गया। संजय ! जब मैनें यह संवाद सुना, तब मेरी विजय की आशा भी चली गयी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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