महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-21

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अठारहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: अठारहवां अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद

शिवसहस्त्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान् शकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्ण द्वारा भगवान् शिवजीकी महिमाका वर्णन वैषम्पायन उवाच वैषम्पायनजी कहते है-जनमेजय! तदनन्तर महायोगी श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिश्वर व्यासने युधिष्ठिरसे कहा-’बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भी इस स्तोत्र का पाठ करो, जिससे तुम्हारे उपर भी महेश्वर प्रसन्न हों। ’पुत्र! म्हाराज! पूर्वकालकी बात है, मैंने पुत्रकी प्राप्ति के लिये मेरूपर्वतपर बड़ी भारी तपस्या की थी। उस समय मैंने इस स्तोत्रका अनेक बार पाठ किया था। ’पाण्डुनन्दन! इसके पाठसे मैंने अपनी मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लिया था। उसी प्रकार तुम भी शकरजीसे सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लोगे ’तत्पश्चात् वहां सांख्यके आचार्य देवसम्मानित कपिलने कहा-’मैने भी अनेक जन्मों तक भक्तिभावसे भगवान् शकरकी आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान् ने मुझे भवभयनाशक ज्ञान प्रदान किया था’। तदनन्तर इन्द्रके प्रिय सखा आलम्बगोत्रीय चारूशीर्षने जो आलम्बायन नाम से ही प्रसिद्ध तथा परम दयालु हैं, इस प्रकार कहा-’पाण्डुनन्द! पूर्वकाल में गोकर्णतीर्थमे जाकर मैंने सौ वर्षोंतक तपस्या करके भगवान् शकरको संतुष्ट किया। इससे भगवान् शकरकी ओर से मुझे सौ पुत्र प्राप्त भगवान् श्रीकृष्ण एवं विभिन्न महर्षियोंका युधिष्ठिरको उपदेश हुए, जो अयोनिज, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, परम तेजस्वी, जरारहित, दुःखहीन और एक लाख वर्षकी आयुवाले थे’। इसके बाद भगवान् वाल्मीकि ने राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा-’भारत’! एक समय अग्निहोत्री मुनियों के साथ मेरा विवाद हो रहा था। उस समय उन्होंने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया कि ’तुम ब्रहाहत्यारे हो जाओ।’ उनके इतना कहते ही मैं क्षणभरमें उस अधर्मसे व्याप्त हो गया। तब मै। पापरहित एवं अमोघ शक्तिवाले भगवान् शकरकी शरणमें गया। इससे मैं उस पापसे मुक्त हो गया। फिर उन दुःखनाशन त्रिपुरहन्ता रूद्रने मुझसे कहा-’तुम्हें सर्वश्रेष्ठ सुयश प्राप्त होगा’। इसके बाद धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परषुरामजी ऋषियों के बीच में खड़े होकर सूर्यके समान प्रकाशित होते हुए वहां कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले-’ज्येष्ठ पाण्डव! नरेष्वर! मैंने पितृतुल्य बड़े भाइयोंको मारकर पितृवध और ब्राहाणवधका पाप कर डाला था। इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ और मै। पवित्र भासे महादेवजीकी शरणमें गया। शरणागत होकर मैंने इन्हीं नामोंसे रूद्रदेवकी स्तुति की। इससे मुझे अपना परशु एवं दिव्यास्त्र देकर बोले-’तुम्हें पाप नहीं लगेगा। तुम युद्धमें अजेय हो जाओंगे। तुमपर मृत्युका वश नहीं चलेगा तथा तुम अजर-अमर बने रहोगे’ इस प्रकार कल्याणमय विग्रहवाले जटाधारी भगवान् शिवने मुझसे जो कुछ कहा, वह सब कुछ उन ज्ञानी महेश्वरके कृपाप्रसादसे मुझे प्राप्त हो गया’। तदनन्तर विश्वामित्रजीने कहा, ’राजन्! जिस समय मैं क्षत्रिय था, उन दिनोंकी बात है, मेरे मन में यह दृढ़ संकल्प हुआ कि मैं ब्राहाण हो जाउं-यही उदेश्य लेकर मैंने भगवान् शकरकी आराधना की। और उनकी कृपासे मैंने अत्यन्त दुर्लभ ब्रहमणत्व प्राप्त कर लिया’। तत्पश्चात् असित देवलने पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर से कहा- ’कुन्तीनन्दन! प्रभो! इन्द्र के शापसे मेरा धर्म नष्ट हो गया था; किंतु भगवान् शकरने ही मुझे धर्म, उतम यश तथा दीर्घ आयु प्रदान की’। इसके बाद इन्द्रके प्रिय सखा और बृहस्पतिके समान तेजस्वी मुनिवर भगवान् गृत्समदने अजमीढवंषी युधिष्ठिरसे कहा-’’चाक्षुष मनुके पुत्र भगवान् वरिष्ठके नामसे प्रसिद्ध हैं। एक समय अचिन्त्य शक्तिशाली शतक्रतु इन्द्रका एक यज्ञ हो रहा था जो एक हजार वर्षोतक चलनेवाला था। उसमें मैं रथनन्तर सामका पाठ कर रहा था। मेरे द्वारा उस सामका उच्चारण होनेपर वरिष्ठने मुझसे कहा-’द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे द्वारा रथन्तर सामका पाठ ठीक नहीं हो रहा है ’’विप्रवर! तुम पापपूर्ण आग्रह छोड़कर फिर अपनी बुद्धि से विचार करो। सुदुर्मते! तुमने ऐसा पाप कर डाला है, जिससे यह यज्ञ ही निष्फल हो गया’।। ’ऐसा कहकर महाक्रोधी वरिष्ठने भगवान् शकरकी ओर देखते हुए फिर कहा-’तुम ग्यारह हजार आठ सौ वर्षोंतक जल और वायुसे रहित तथा अन्य पशुओं से परित्यक्त केवल रूरू तथा सिंहोंसे सेवित जो यज्ञोंके लिये उचित नही है-ऐसे वृक्षोंसे भरे हुए विशालवन में बुद्धिष्च, दुखी, सर्वदा भयभीत, वनचारी और महान् कष्टमे मग्न क्रूर स्वभाववाले पशु होकर रहोगे’ कुन्तीनन्दन! डनका यह वाक्य पूरा होते ही मैं क्रूर पशु हो गया। तब मैं भगवान् शकरकी शरणमें गया। अपनी शरणमें आये हुए मुझ सेवकसे योगी महेश्वर इस प्रकार बोले-’मुने! तुम अजर-अमर और दुःखरहित हो जाओगे। तुम्हें मेरी समानता प्राप्त हो और तुम दोनों यजमान और पुरोहितका यह यज्ञ सदा बढ़ता रहे’’ इस प्रकार सर्वव्यापी भगवान् शकर सबके उपर अनुग्रह करते है। ये ही सबका अच्छे ढंगसे धारण-पोषण करते हैं और सर्वदा सबके सुख-दुःख का भी विधान करते हैं’’। ’’तात! समरभूमिके श्रेष्ठ वीर! ये अचिन्त्य भगवान् शिव मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा आराधना करने योग्य हैं। उनकी आराधनाका ही यह फल है कि पाण्डित्य में मेरी समानता करनेवाला आज कोई नहीं है’’। उस समय बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण फिर इस प्रकार बोले-’’मैंने सुवर्ण-जैसे नेत्रवाले महादेवजीको अपनी तपस्या से संतुष्ट किया। ’’युधिष्ठिर! तब भगवान् शिव ने मुझसे प्रसन्नता-पूर्वक कहा-’श्रीकृष्ण! तुम मेरी कृपासे प्रिय पदार्थोंकी अपेक्षा भी अत्यन्त प्रिय होओगे। युद्धमें तुम्हारी कभी पराजय नहीं होगी तथा तुम्हें अग्निके समान दुस्सह तेजकी प्राप्ति होगी’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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