महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:५२, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==बयालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)== <div style=...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

बयालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: बयालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद

विपुलका गुरुकी आज्ञासे दिव्‍य पुष्‍प लाकर उन्‍हें देना और अपने द्वारा किये गये दुष्‍कर्मोका स्‍मरण करना भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! विपुलने गुरुकी आज्ञा का पालन करके बड़ी कठोर तपस्‍या की। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी और वे अपनेको बड़ा भारी तपस्‍वी मानने लगे। पृथ्‍वीनाथ ! विपुल उस तपस्‍याद्वारा मन-ही-मन गर्वका अनुभव करके दूसरोंसे स्‍पर्धा रखने लगे। नरेश्‍वर ! उन्‍हें गुरुसे किर्ति और वरदान दोनों प्राप्‍त हो चुके थे, अत: वे निर्भय एवं सतुष्‍ट होकर पृथ्‍वीपर विचरने लगे। कुरुनन्‍दन! शक्तिशाली विपुल उस गुरुपत्‍नी-संरक्षणरुपी कर्म तथा प्रचुर तपस्‍याद्वारा ऐसा समझने लगे कि मैंने दोनों लोक जीत लिये। कुरुकुल आनन्दित करनेवाले युधिष्ठिर! तदनन्‍तर कुछ समय बीत जानेपर गुरुपत्‍नी रुचिकी बड़ी बहिनके यहॉं विवाहोत्‍सवका उपस्थित हुआ, जिसमें प्रचुर धन-धान्‍यका व्‍यय होनेवाला था। उन्‍हीं दिनों एक दिव्‍य लोककी सुन्‍दरी दिव्‍यांगना परम मनोहर रुप धारण किये आकाशमार्गसे कहीं जा रही थी। भारत ! उसके शरीरसे कुछ दिव्‍य पुष्‍प, जिनसे दिव्‍य सुगन्‍ध फैल रही थी, देवशर्माके आश्रमके पास ही पृथ्‍वीपर गिरे। राजन् ! तब मनोहर नेत्रोंवाली रुचिने वे फुल ले लिये। इतनेमें ही अंदेशसे उसका शीघ्र ही बुलावा आ गया। तात! रुचिकी बड़ी बहिन,जिसका नाम प्रभावती था, अंगराज चित्ररथको ब्‍याही गयी थी। उन दिव्‍य फूलोंको अपने केशोमें गूँथकर सुन्‍दरी रुचि अंगराजके घर आमन्त्रित होकर गयी। उस समय सुन्‍दर नेत्रोवाली अंगराजकी सुन्‍दरी रानी प्रभावतीने उन फुलोंको देखकर अपनी बहिनसे वैसे ही फूल मँगवा देनेका अनुरोध किया। आश्रममें लौटनेपर सुन्‍दर मुखवाली रुचिने बहिनकी कही हुई सारी बातें अपने स्‍वामी से कह सुनायी। सुनकर ॠषिने उसकी प्रार्थना स्‍वीकार कर ली। भारत! तब महा तपस्‍वी देवशर्माने विपुलको बुलवाकर उन्‍हें फूल लानेके लिये आदेश दिया और कहा, ‘जाओ,जाओ’। राजन् ! गुरुको आज्ञा पाकर महा तपस्‍वी विपुल उसपर कोई अन्‍यथा विचार न करके ‘बहुत अच्‍छा‘ कहते हुए उस स्‍थानकी ओर चल दिये जहॉं आकाशसे वे फुल गिरे थे। वहॉ और भी बहुत-से फूल पड़े हुए थे, जो कुम्‍हलाये नहीं थे। भारत! तदनन्‍तर अपने तपसे प्राप्‍त हुए उन दिव्‍य सुगन्‍धसे युक्‍त मनोहर दिव्‍य पुष्‍पोंको विपुलने उठा लिया। गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाले विपुल उन फुलोंको पाकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्‍न हुए और तुरंत ही चम्‍पाके वृक्षोंसे घिरी हुई चम्‍पा नगरीकी ओर चल दिये। तात! एक निर्जन वनमें आनेपर उन्‍होंने स्‍त्री पुरुषके एक जोड़ेको देखा, जो एक-दुसरेका हाथ पकड़कर कुम्‍हारके चाकके समान घुम रहे थे। राजन्! उनमेंसे एकने अपनी चाल तेज कर दी और दूसरेने वैसा नहीं किया। इसपर दोनों आपसमें झगड़ने लगे। नरेश्‍वर ! एकने कहा- ‘तुम जल्‍दी-जल्‍दी चलते हो।‘ दूसरेने कहा, ‘नहीं।‘ इस प्रकार दोनों एक-दूसरेपर दोषारोपण करते हुए एक-दूसरेको ‘नहीं-नहीं’ कह रहे थे। इस प्रकार एक-दूसरेसे स्‍पर्धा रखते हुए उन दोनोंमें शपथ खानेकी नौबत आ गयी।फिर तो सहसा विपुलको लक्ष्‍य करके वे दोनों इस प्रकार बोले- ‘हमलोगोंमेंसे जो भी झूठ बोलता हैं उसकी वहीं गति होगी जो परलोक में ब्राहामण विपुलके लिये नियत हुई है’। यह सुनकर विपुलके मुँहपर विषाद छा गया। ‘मैं ऐसी कठोर तपस्‍या करनेवाला हूँ तो भी मेरी दुर्गति होगी। तब तो तपस्‍या करनेका वह घोर परिश्रम कष्‍टदायक ही सिध्‍द हुआ। ‘मेरा ऐसा कौन-सा पाप है जिसके अनुसार मेरी वह दुर्गति होगी जो समस्‍त प्राणियोंके लिये अनिष्‍ट है एवं इस स्‍त्री-पुरुषके जोड़ेको मिलनेवाली है, जिसका इन्‍होंने आज मेरे समक्ष वर्णन किया है’। नृपश्रेष्‍ठ ! ऐसा सोचते हुए ही विपुल नीचे मुँह किये हुये दीनचित ही अपने दुष्‍कर्मका स्‍मरण करने लगे। तदनन्‍तर ‍विपुलको दूसरे छ: पुरुष दिखायी पड़े, जो सोने-चॉंदीके पासे लेकर जुआ खेल रहे थे और लोभ तथा हर्षमें भरे हुए थे। वे भी वही शपथ खा रहे थे जो पहले स्‍त्री–पुरुषके जोड़ने की थी। उन्‍होंने विपुलको लक्ष्‍य करके कहा-‘हमलोगोंमेंसे जो लोभका आश्रय लेकर बेईमानी करनेका साहस करेगा, उसको वही गति मिलेगी, जो परलोकमें विपुलको मिलनेवाली है- कुरुनन्‍दन ! यह सुनकर विपुलने जन्‍मसे लेकर वर्तमान समयतकके अपने समस्‍त कर्मोंका स्‍मरण किया; किंतु कभी कोई धर्मके साथ पापका मिश्रण हुआ हो, ऐसा नहीं दिखायी देगा।राजन् ! परंतु अपने विषयमें वैसा शाप सुनकर जैसे एक आगमें दूसरी आग रख दी गयी हो, उसी प्रकार विपुलका वे पुन: अपने कर्मोपर विचार करने लगे। तात ! इस प्रकार चिन्‍ता करते हुए उनके कई दिन और रातें बीत गयी। तब गुरुपत्‍नी रुचिकी रक्षाके कारण उनके मनमें ऐसा विचार उठा-‘मैंने जब गुरुपत्‍नीकी रक्षाके लिये उनके शरीरमें सुक्ष्‍मरुपसे प्रवेश किया था तब मेरे लक्षणेन्द्रिय उनकी लक्षणेन्द्रियसे और मुख उनके मुख से संयुक्‍त हुआ था। ऐसा अनुचित कार्य करके भी मैंने गुरुजीको यह सच्‍ची बात नहीं बतायी’ । महाभाग कुरुनन्‍दन ! उस समय विपुलने अपने मनमें इसीको पाप माना और निस्‍संदेह बात भी ऐसी ही थी। चम्‍पानगरीमें जाकर गुरुप्रेमी विपुलने वे फूल गुरुजीको अर्पित कर दिये और उनका विधिपूर्वक पूजन किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक बयालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख