महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-19
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
विपुल का गुरु की आज्ञा से दिव्य पुष्प लाकर उन्हें देना और अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मों का स्मरण करना।
भीष्मजी कहते हैं- राजन! विपुल ने गुरु की आज्ञा का पालन करके बड़ी कठोर तपस्या की। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी और वे अपने को बड़ा भारी तपस्वी मानने लगे। पृथ्वीनाथ! विपुल उस तपस्या द्वारा मन-ही-मन गर्व का अनुभव करके दूसरों से स्पर्धा रखने लगे। नरेश्वर ! उन्हें गुरु से कीर्ति और वरदान दोनों प्राप्त हो चुके थे, अत: वे निर्भय एवं संतुष्ट होकर पृथ्वी पर विचरने लगे। कुरुनन्दन! शक्तिशाली विपुल उस गुरुपत्नी-संरक्षण रूपी कर्म तथा प्रचुर तपस्या द्वारा ऐसा समझने लगे कि मैंने दोनों लोक जीत लिये। कुरुकुल को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर! तदनन्तर कुछ समय बीत जाने पर गुरुपत्नी रुचि की बड़ी बहिन के यहाँ विवाहोत्सव का अवसर उपस्थित हुआ, जिसमें प्रचुर धन-धान्य का व्यय होने वाला था। उन्हीं दिनों एक दिव्य लोक की सुन्दरी दिव्यांगना परम मनोहर रूप धारण किये आकाश मार्ग से कहीं जा रही थी। भारत! उसके शरीर से कुछ दिव्य पुष्प, जिनसे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी, देव शर्मा के आश्रम के पास ही पृथ्वी पर गिरे। राजन! तब मनोहर नेत्रों वाली रुचि ने वे फूल ले लिये। इतने में ही संदेश से उसका शीघ्र ही बुलावा आ गया। तात! रुचि की बड़ी बहिन,जिसका नाम प्रभावती था, अंगराज चित्ररथ को ब्याही गयी थी। उन दिव्य फूलों को अपने केशों में गूँथकर सुन्दरी रुचि अंगराज के घर आमन्त्रित होकर गयी। उस समय सुन्दर नेत्रों वाली अंगराज की सुन्दरी रानी प्रभावती ने उन फूलों को देखकर अपनी बहिन से वैसे ही फूल मँगवा देने का अनुरोध किया। आश्रम में लौटने पर सुन्दर मुख वाली रुचि ने बहिन की कही हुई सारी बातें अपने स्वामी से कह सुनायीं। सुनकर ॠषि ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। भारत! तब महातपस्वी देव शर्मा ने विपुल को बुलवाकर उन्हें फूल लाने के लिये आदेश दिया और कहा, ‘जाओ,जाओ।' राजन! गुरु की आज्ञा पाकर महातपस्वी विपुल उस पर कोई अन्यथा विचार न करके ‘बहुत अच्छा‘ कहते हुए उस स्थान की ओर चल दिये जहाँ आकाश से वे फूल गिरे थे। वहाँ और भी बहुत-से फूल पड़े हुए थे, जो कुम्हलाये नहीं थे। भारत! तदनन्तर अपने तप से प्राप्त हुए उन दिव्य सुगन्ध से युक्त मनोहर दिव्य पुष्पों को विपुल ने उठा लिया। गुरु की आज्ञा का पालन करने वाले विपुल उन फूलों को पाकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और तुरंत ही चम्पा के वृक्षों से घिरी हुई चम्पा नगरी की ओर चल दिये। तात! एक निर्जन वन में आने पर उन्होंने स्त्री- पुरुष के एक जोड़े को देखा, जो एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कुम्हार के चाक के समान घूम रहे थे। राजन! उनमें से एक ने अपनी चाल तेज कर दी और दूसरे ने वैसा नहीं किया। इस पर दोनों आपस में झगड़ने लगे। नरेश्वर ! एक ने कहा- ‘तुम जल्दी-जल्दी चलते हो।' दूसरे ने कहा, ‘नहीं।' इस प्रकार दोनों एक- दूसरे पर दोषारोपण करते हुए एक-दूसरे को ‘नहीं-नहीं’ कह रहे थे।
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