चौवालीसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: चौवालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
कन्या-विवाहके सम्बन्धमें पात्रविषयक विभिन्न विचार
युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! जो समस्त धर्मोका, कुटुम्बीजनोंका, घरका तथा देवता, पितर और अतिथियोंका मूल हैं, उस कन्यादानके विषयमें मुझे कुछ उपदेश कीजिये। पृथ्वीनाथ ! सब धर्मोसे बढ़कर यही चिन्तन करने योग्य धर्म माना गया है कि पात्रको कन्या देनी चाहिये? भीष्मजीने कहा- बेटा ! सत्पुरुषोंको चाहिये कि वे पहले वरके शील-स्वभाव, सदाचार, विद्या, कुल, मर्यादा और कार्योकी जॉंच करें।फिर यदि वह सभी दृष्टियोंसे गुणवान् प्रतीत हो तो उसे कन्या प्रदान करें। युधिष्ठिर ! इस प्रकार ब्याहने योग्य वरको बुलाकर उसके साथ कन्याका विवाह करना उतम ब्राहामणों का धर्म-ब्राहविवाह है। जो धन आदिके द्वारा वरपक्षको अनुकुल करके कन्यादान किया जाता है, वह शिष्ट ब्राहामण और क्षत्रियोंका सनातन धर्म कहा जाता है। (इसीको प्राजापत्य विवाह कहते हैं)। युधिष्ठिर ! जब कन्याके माता-पिता अपने पसंद किये हुए वरको छोड़कर जिसे कन्या पसंद करती हो तथा जो कन्याको चाहता हो ऐसे वरके साथ उस कन्याका विवाह करते हैं, तब वेदवेता पुरुष उस विवाहको गान्धर्व धर्म (गान्धर्व विवाह) कहते हैं।। नरेश्वर ! कन्याके बन्धु-बान्धवोंको लोभमें डालकर उन्हें बहुत-सा धन देकर जो कन्याको खरीद लिया जाता है, इसे मनीषी पुरुष असुरोंका धर्म (आसुर विवाह)कहते हैं। तात ! इसी प्रकार कन्याके रोते हुए अभिभावाकोंको मारकर, उनके मस्तक काटकर रोती हुई कन्याको उसके घरसे बलपूर्वक हर लाना राक्षसोंका काम (राक्षस विवाह) कहा जाता है। युधिष्ठिर ! इन पांच (ब्राहय, प्राजापत्य,गान्धर्व , आसुर और राक्षस) विवाहोंमेंसे पूर्वकथित तीन विवाह धर्मानुकुल हैं और शेष दो पापमय हैं । आसुर और राक्षस विवाह किसी प्रकार भी नहीं करने चाहिये[१]। नरश्रेष्इ ! बा्रह, क्षात्र (प्राजापत्य) तथा गान्धर्व- ये तीन विवाह धर्मानुकुल बताये गये हैं। ये पृथक हों या अन्य विवाहोंसे मिश्रित- करने ही योग्य हैं। इसमें संशय नहीं हैं। ब्राहामण के लिये तीन भार्याऍं बतायी गयी हैं (ब्राहामण-कन्या, क्षत्रिय-कन्या, और वैश्य–कन्या), क्षत्रियके लिये दो भार्याऍं कही जाती हैं (क्षत्रिय-कन्या और वैश्य-कन्या)। वैश्य केवल अपनी ही जातिकी कन्याके साथ विवाह करे।इन स्त्रियोंसे जो संतानें उत्पन्न होती हैं वे पिताके समान वर्णवाली होती हैं (माताओंके कुल या वर्णके कारण उनमें कोई तारतम्य नहीं होता)। ब्राहामण की पत्नियोंमें ब्राहामण-कन्या श्रेष्ठ मानी जाती है, क्षत्रियके लिये क्षत्रिय-कन्या श्रेष्ठ है (वैश्यकी तो एक ही पत्नी होती है; अत: वह श्रेष्ठ है ही)।कुछ लोगोंका मत है कि रतिके लिये शुद्र-जातिकी कन्यासे भी विवाह किया जा सकता है; परंतु और लोग ऐसा नहीं मानते (वे शुद्र-कन्याको त्रैवर्णिकोंके लिये अग्राह बतलाते हैं)। श्रेष्ठ पुरुष ब्राहामण का शुद्र-कन्याके गर्भसे संतान उत्पन्न करना अच्छा नहीं मानते।शुद्राके गर्भसे संतान उत्पन्न करनेवाला प्रायश्चित का भागी होता है। तीस वर्षका पुरुष दस वर्षकी कन्याको, जो रजस्वला न हुई हो, पत्नीरुपमें प्राप्त करे। अथवा इक्कीस वर्षका पुरुष सात वर्षकी कुमारीके साथ विवाहकरे। भरतश्रेष्ठ ! जिस कन्याके पिता अथवा भाई न हों, उसके साथ कभी विवाह नहीं चाहिये, क्योंकि वह पुत्रिका-धर्मवाली मानी जाती हैं। (यदि पिता, भ्राता आदि अभिभावक ॠतुमती होनेके पहले कन्याका विवाह न कर दें तो) ॠतुमती होनेके पश्चात् तीन वर्षतक कन्या अपने विवाहकी बाट देखे। चौथा वर्ष लगनेपर हीवह स्वयं ही किसीको अपना पति बना लें। भरतश्रेष्ठ ! ऐसा कहनेपर उस कन्याका उस पुरुषके साथ किया हुआ सम्बन्ध तथा उससे होनेवाली संतान निम्न श्रेणीकी नहीं समझी जाती। इसके विपरीत बर्ताव करनेवाली स्त्री प्रजापति की दृष्टिमें निन्दनीय होती हैं। जो कन्या माताकी सपिण्ड और पिताके गोत्रकी न हो, उसीका अनुगमन करे। इसे मनुजीने धर्मानुकूल बताया हैं[२]युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! यदि एक मनुष्यने विवाह पक्का करके कन्याका मूल्य दे दिया हो, दूसरेने मूल्य देनेका वादा करके विवाह पक्का किया हो, तीसरा उसी कन्यको बलपूर्वक ले जानेकी बातकर रहा हो, चौथा उसके भाई-बन्धुओं विशेष धनका लोभ दिखाकर ब्याह करनेको तैयार हो और पॉंचवा उसका पाणिग्रहण कर चुका हो तो धर्मत: उसकी कन्या किसकी पत्नी मानी जायगी? हमलोग इस विषयमें यथार्थ तत्वको जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये नेत्र(पथ-प्रदर्शक)हों। भीष्मजीने कहा- भारत! मनुष्योंके हितसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कोई भी कर्म है, वह व्यवस्था लिये देखा जाता है। समस्त विचारवान् पुरुष एकत्र होकर जब यह विचार कर लें कि ‘अमुक कन्या अमुक पुरुषको देनी चाहिये’ तो यह व्यवस्था ही विवाहका निश्चय करनेवाली होती हैं। जो झूठ बोलकर इस व्यवस्थाको उलट देता हैं, वह पापका भागी होता हैं।। भार्या, पति, आचार्य, शिष्य और उपाध्याय भी यदि उपर्युक्तके विरुध्द झूठ बोलें तो दण्डके भागी होते हैं। परंतु दूसरे लोग उन्हें दण्डके भागी नहीं मानते हैं। अकाम पुरुषके साथ सकामा कन्याका सहवास हो, इसे मनु अच्छा नहीं मानते है।अत: सर्वसम्मतिसे निश्चित किये हुए विवाहको मिथ्या करनेके अयश और अधर्मका कारण होता हैं। वह धर्मको नष्ट करनेवाला माना गया हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.स्मृतियोंमें निम्नलिखित आठ विवाह बतलाये गये हैं- ब्रहा,दैव,आर्ष,प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर,राक्षस और पैशाच। किंतु यहाँ 1 ब्रम्हा, 2 प्राजापत्य, 3 गान्धर्व, 4आसुर और 5 राक्षस-इन्हीं पॉंच विवाहोंका उल्लेख किया गया है; अत: यहॉं जो ब्रम्हा विवाह हैं उसीमें स्मृतिकथित दैव और आर्ष विवाहोंका भी अन्तर्भाव समझना चाहिये। इसी प्रकार यहॉंबताये हुए राक्षस विवाहमें उपर्युक्त पैशाच विवाहका समावेश कर लेना चाहिये। प्राजापत्याको ही ‘क्षात्र’ विवाह भी कहा जाता है।
- ↑ 2. सापिण्ड्य निवृतिके सम्बन्धमें स्मृतिका वचन हैं-बच्चा वरस्य वा तात: कूटस्थाद यदि सप्तम:। पंचमी चेत्तयोर्माता तत्सापिड्य निवर्तते॥ अर्थात 'यदि वर अथवा कन्या का पिता मूल पुरुष से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवीं पीढ़ी में पैदा हुई है तो वर और कन्या के लिये सापिण्डय की निवृत्ति हो जाती है।’ पिता की ओर का सापिण्डय सात पीढ़ी तक चलता है और माता का सापिण्डय पाँच पीढ़ी तक। सात पीढ़ी में एक तो पिण्ड देने वाला होता है, तीन पिण्डभागी होते है और तीन लेपभागी होते है।
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