महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-14
चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
कन्या- विवाह के सम्बन्ध में पात्रविषयक विभिन्न विचार ।
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो समस्त धर्मों का, कुटुम्बीजनों का, घर का तथा देवता, पितर और अतिथियों का मूल है, उस कन्यादान के विषय में मुझे कुछ उपदेश कीजिये। पृथ्वीनाथ ! सब धर्मों से बढ़कर यही चिन्तन करने योग्य धर्म माना गया है कि पात्र को कन्या देनी चाहिये? भीष्मजी ने कहा- बेटा ! सत्पुरुषों को चाहिये कि वे पहले वर के शील-स्वभाव, सदाचार, विद्या, कुल, मर्यादा और कार्यों की जाँच करें। फिर यदि वह सभी दृष्टियों से गुणवान प्रतीत हो तो उसे कन्या प्रदान करें। युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्याहने योग्य वर को बुलाकर उसके साथ कन्या का विवाह करना उत्तम ब्राहामणों का धर्म-ब्रम्ह विवाह है। जो धन आदि के द्वारा वरपक्ष को अनुकुल करके कन्यादान किया जाता है, वह शिष्ट ब्राम्हण और क्षत्रियों का सनातन धर्म कहा जाता है। (इसी को प्राजापत्य विवाह कहते हैं)। युधिष्ठिर! जब कन्या के माता-पिता अपने पसंद किये हुए वर को छोड़कर जिसे कन्या पसंद करती हो तथा जो कन्या को चाहता हो ऐसे वर के साथ उस कन्या का विवाह करते हैं, तब दवेता पुरुष उस विवाह को गान्धर्व धर्म (गान्धर्व विवाह) कहते हैं। नरेश्वर! कन्या के बन्धु-बान्धवों को लोभ में डालकर उन्हें बहुत-सा धन देकर जो कन्या को खरीद ले जाता है, इसे मनीषी पुरुष असुरों का धर्म (आसुर विवाह)कहते हैं। तात! इसी प्रकार कन्या के रोते हुए अभिभावाकों को मारकर, उनके मस्तक काटकर रोती हुई कन्या को उसके घर से बलपूर्वक हर लाना राक्षसों का काम (राक्षस विवाह) कहा जाता है। युधिष्ठिर! इन पांच (ब्राहय, प्राजापत्य,गान्धर्व , आसुर और राक्षस) विवाहों में से पूर्वकथित तीन विवाह धर्मानुकुल हैं और शेष दो पापमय हैं। आसुर और राक्षस विवाह किसी प्रकार भी नहीं करने चाहियें[१]। नरश्रेष्ठ! बारह, क्षात्र (प्राजापत्य) तथा गान्धर्व- ये तीन विवाह धर्मानुकुल बताये गये हैं। ये पृथक हों या अन्य विवाहों से मिश्रित- करने ही योग्य हैं। इसमें संशय नहीं है। ब्राम्हण के लिये तीन भार्याएँ बतायी गयी हैं (ब्राहामण-कन्या, क्षत्रिय-कन्या और वैश्य–कन्या), क्षत्रिय के लिये दो भार्याएँ कही जाती हैं (क्षत्रिय-कन्या और वैश्य-कन्या)। वैश्य केवल अपनी ही जाति की कन्या के साथ विवाह करे। इन स्त्रियों से जो संतानें उत्पन्न होती हैं वे पिता के समान वर्णवाली होती हैं (माताओं के कुल या वर्ण के कारण उनमें कोई तारतम्य नहीं होता)। ब्राम्हण की पत्नियों में ब्राम्हण-कन्या श्रेष्ठ मानी जाती है, क्षत्रिय के लिये क्षत्रिय-कन्या श्रेष्ठ है (वैश्य की तो एक ही पत्नी होती है; अत: वह श्रेष्ठ है ही)।कुछ लोगों का मत है कि रति के लिये शूद्र-जाति की कन्या से भी विवाह किया जा सकता है; परंतु और लोग ऐसा नहीं मानते (वे शूद्र-कन्या को त्रैवर्णिकों के लिये अग्राह बतलाते हैं)। श्रेष्ठ पुरुष ब्राम्हण का शुद्र-कन्या के गर्भ से संतान उत्पन्न करना अच्छा नहीं मानते। शूद्रा के गर्भ से संतान उत्पन्न करने वाला प्रायश्चित का भागी होता है। तीस वर्ष का पुरुष दस वर्ष की कन्या को, जो रजस्वला न हुई हो, पत्नी रूप में प्राप्त करे। अथवा इक्कीस वर्ष का पुरुष सात वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्मृतियोंमें निम्नलिखित आठ विवाह बतलाये गये हैं- ब्रम्हा,दैव,आर्ष,प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर,राक्षस और पैशाच। किंतु यहाँ 1. ब्रम्ह, 2. प्राजापत्य, 3. गान्धर्व, 4. आसुर और 5. राक्षस-इन्हीं पाँच विवाहों का उल्लेख किया गया है; अत: यहाँ जो ब्रम्ह विवाह है उसी में स्मृतिकथित दैव और आर्ष विवाहों का भी अन्तर्भाव समझना चाहिये। इसी प्रकार यहाँ बताये हुए राक्षस विवाह में उपर्युक्त पैशाच विवाह का समावेश कर लेना चाहिये। प्राजापत्या को ही ‘क्षात्र’ विवाह भी कहा जाता है।