महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 168 श्लोक 25-47
अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
राजेन्द्र! तब सारथि अपने कर्तव्य का स्मरण करके उन्हें रणभूमि से दूर हटा ले गया। पाञ्चालों के महारथी द्रुपद के हट जाने पर बाणों से कटे हुए कवच वाली द्रुपद की सारी सेना उस भयंकर आधी रात के समय वहाँ से भाग चली। राजन्! भागते हुए सैनिकों ने जो मशालें फेंक दी थीं, वे सब ओर जल रही थीं। उनके द्वारा वह रणभूमि ग्रह-नक्षत्रों से भरे हुए मेघहीन आकाश के समान सुशोभित हो रही थी। महाराज! वीरों के गिरे हुए चमकीले बाजूबन्दों से वहाँ की भूमि वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे वर्षाकाल में बिजलियों से मेघ प्रकाशित होता है। तदनन्तर कर्ण पुत्र वृषसेन के भय से त्रस्त हो सोमकवंशी क्षत्रिय उसी प्रकार भागने लगे, जैसे तारकामय संग्राम में इन्द्र के भय से डरे हुए दानव भागे थे। महाराज! समरभूमि में वृषसेन से पीड़ित होकर भागते हुए सोमक योद्धा प्रदीपों से प्रकाशित हो बड़ी शोभा पा रहे थे। भारत! युद्धस्थल में उन सबको जीतकर कर्ण पुत्र वृषसेन भी दोपहर के प्रचण्ड किरणों वाले सूर्य के समान उद्भासित हो रहा था। आपके और शत्रुपक्ष के सहस्त्रों राजाओं के बीच एकमात्र प्रतापी वृषसेन ही अपने तेज से प्रकाशित होता हुआ रणभूमि में खड़ा था। वह युद्ध के मैदान में शूरवीर सोमक महारथियों को परास्त करके तुरंत वहाँ चला गया, जहाँ राजा युधिष्ठिर खड़े थे। दूसरी और क्रोध में भरा हुआ प्रतिविन्ध्य रणक्षेत्र में शत्रुओं को दग्ध कर रहा था। उसका सामना करने के लिये आपका महारथी पुत्र दुःशासन आ पहुँचा। राजन्! जैसे मेघरहित आकाश में बुध और सूर्य का समागम हो, उसी प्रकार युद्धस्थल में उन दोनों का अद्भुत मिलन हुआ। समरागंण में दुष्कर कर्म करने वाले प्रतिबिन्ध्य के ललाट में दुःशासन ने तीन बाण मारे। आपके बलवान् धनुर्धर पुत्र द्वारा चलाये हुए उन बाणों से अत्यन्त घायल हो महाबाहु प्रतिविन्ध्य तीन शिखरों वाले पर्वत के समान सुशोभित हुआ। तत्पश्चात् महारथी प्रतिविन्ध्य नेसमरभूमि में दुःशासन को नौ बाणों से घायल करके फिर सात बाणों से बींध डाला। भारत! उस समय वहाँ आपके पुत्र ने एक दुष्कर पराक्रम कर दिखाया। उसने अपने भयंकर बाणों द्वारा प्रतिविन्ध्य के घोड़ों को मार गिराया। राजन्! फिर एक भल्ल मारकर उसने धनुर्धर वीर प्रतिविन्ध्य के सारथि और ध्वज को धराशायी कर दिया तथा रथ के भी तिल के समान टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रभो! क्रोध में भरे हुए दुःशासन ने झुकी हुई गाँठवाले बाणों से प्रतिविन्ध्य की पताकाओं, तरकसों, उनके घोड़ों की बागडोरों और रथ के जोतों को भी तिल-तिल करके काट डाला। धर्मात्मा प्रतिविन्ध्य रथहीन हो जाने पर हाथ में धनुष लिये पृथ्वी पर खड़ा हो गया और सैकड़ों बाणों की वर्षा करता हुआ आपके पुत्र के साथ युद्ध करने लगा। तब आपके पुत्र ने एक क्षुरप्रसे प्रतिविन्ध्य का धनुष काट दिया और धनुष कट जाने पर उसे दस बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। उसे रथहीन हुआ देख उसके अन्य महारथी भाई विशाल सेना के साथ बड़े वेग से उसकी सहायता के लिये आ पहुँचे। महाराज! तब प्रतिविन्ध्य उछलकर सुतसोम के तेजस्वी रथ पर जा बैठा और हाथ में धनुष लेकर आपके पुत्र को घायल करने लगा। यह देख आपके सभी योद्धा आपके पुत्र दुःशासन को तब ओर से घेरकर विशाल सेना के साथ वहाँ युद्ध के लिये डट गये। भारत! तदनन्तर उस भयंकर निशीथकाल में आपके पुत्र और द्रौपदी पुत्रों का घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जो यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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