महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 168 श्लोक 1-24
अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
शतानीक के द्वारा चित्रसेन की और वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय तथा प्रतिबिन्ध्य एवं दुःशासन का युद्ध संजय कहते हैं- भारत! एक ओर से नकुल पुत्र शतानीक अपनी शराग्नि से आपकी सेना को भस्म करता हुआ आ रहा था। उसे आपके पुत्र चित्रसेन ने रोका। शतानीक ने चित्रसेन को पाँच बाण मारे। चित्रसेन ने भी दस पैने बाण मारकर बदला चुकाया। महाराज! चित्रसेन ने युद्धसथल में पुनः नौ तीखे बाणों द्वारा शतानीक की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। तब नकुल पुत्र ने झुकी हुई गाँठवाले अनेक बाण मारकर चित्रसेन के शरीर से उसके कवच को काट गिराया। वह अद्भुत सा कार्य हुआ। नरेश्वर! राजेन्द्र! कवच कट जाने पर आपका पुत्र चित्रसेन समय पर केंचुल छोड़ने वाले सर्प के समान अत्यन्त सुशोभित हुआ। महाराज! मदनन्तर नकुल पुत्र शतानीक ने युद्धस्थल में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले चित्रसेन के ध्वज और धनुष को पैने बाणों द्वारा काट दिया। राजेन्द! समरागंण में धनुष और कवच कट जाने पर महारथी चित्रसेन ने दूसरा धनुष हाथ में लिया, जो शत्रु को विदीर्ण करने में समर्थ था। उस समय समरभूमि में कुपित हुए भरतकुल के महारथी वीर चित्रसेन ने नकुल पुत्र शतानीक को नौ बाणों से घायल कर दिया। माननीय नरेश! तब अत्यन्त कुपित हुए नरक्षेष्ठ शतानीक ने चित्रसेन के चारों घो़ड़ों और सारथि को मार डाला।। तब बलवान् महारथी चित्रसेन ने उस रथ से कूदकर नकुल पुत्र शतानीक को पचास बाण मारे। यह देख रणक्षेत्र में नकुल पुत्र ने पूर्वोक्त कर्म करने वाले चित्रसेन के रत्नविभूषित धनुष को एक अर्धचन्द्रकार बाण से काट डाला। धनुष कट गया, घोड़े और सारथि मारे गये और वह रथहीन हो गया। उस अवस्था में चित्रसेन तुरंत भागकर महामना कृतवर्मा के रथ पर जा चढ़ा। द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये आते हुए महारथी द्रुपद पर वृषसेन ने सौकड़ों बाणों की वर्षा करते हुए तत्काल आक्रमण कर दिया। निष्पाप नरेश! समरागंण में राजा यज्ञसेन (द्रुपद) ने महारथी कर्ण पुत्र वृषसेन की छाती और भुजाओं में साठ बाण मारे। तब वृषसेन अत्यन्त कुपित होकर रथ पर बैठे हुए यज्ञसेन की छाती में बहुत से पैने बाण मारे। महाराज! उन दोनों के ही शरीर एक दूसरे के बाणों से क्षत-विक्षत हो गये थे। वे दोनों ही बाणरूपी कंटकों से युक्त हो काँटों से भरे हुए दो साही नामक जन्तुओं के समान शोभित हो रहे थे। सोने के पंख और स्वच्छ धारवाले बाणों से उस महासमर में दोनों के कवच कट गये थे और दोनों ही लहू-लुहान होकर अद्भुत शोभा पा रहे थे। वे दोनों सुवर्ण के समान विचित्र, कल्पवृक्ष के समान अद्भुत और खिले हुए दो पलाश वृक्षों के समान अनूठी शोभा से सम्पन्न हो रणभूमि में प्रकाशित हो रहे थे। राजन्! तदनन्तर वृषसेन ने राजा द्रुपद को नौ बाणोंसे घायल करके फिर सत्तर बाण से बींध डाला। तत्पश्चात् उन्हें तीन-तीन बाण और मारे। महाराज! तदनन्तर सहस्त्रों बाणों का प्रहार करता हुए कर्ण पुत्र वृषसेन जल की वर्षा करने वाले मेघके समान सुशोभित होने लगा। इससे क्रोध में भरे हुए राजा द्रुपद ने एक पानीदार पैने भल्ल से वृषसेन के धनुष के दो टुकड़े कर डाले। तब उसने सोने से मढ़े हुए दूसरे नवीन एवं सुदृढ़ धनुष को हाथ में लेकर तरकस से एक चमचमाता हुआ पानीदार, तीखा और मजबूत भल्ल निकाला। उसे धनुष पर रक्खा और कान तक खींचकर समस्त सोमकों को भयभीत करते हुए वृषसेन ने राजा द्रुपद को लक्ष्य करके वह भल्ल छोड़ दिया। वह भल्ल द्रुपद की छाती छेदकर धरती पर जा गिरा। वृषसेन के उस भल्ल से आहत होकर राजा द्रुपद मूर्छित हो गये।
« पीछे | आगे » |