महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 91 श्लोक 18-37

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एकनवतितम (91) अध्याय: आश्‍वमेधिकपर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिकपर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद

इन्‍द्र के उस यज्ञ में जुटे हुए तपस्‍वी लोगों में इस प्रश्‍न को लेकर महान् विवाद खड़ा हो गया । भारत ! एक पक्ष कहता था कि जंगम पदार्थ ( पशु आदि ) – के द्वारा यज्ञ करना चाहिये और दूसरा पक्ष्‍ा कहता था कि स्‍थावर वस्‍तुओं ( अन्‍न –फल आदि)– के द्वारा यजन करना उचित है ।भरतनन्‍दन ! वे तत्‍वदर्शी ऋषि जब इस विवाद से बहुत खिन्‍नहो गये, तब उन्‍होंने इन्‍द्र के साथ सलाह लेकर इस विषय में राजा उपरिचर वसु से पूछा –‘महामते ! हम लोग धर्म विशयक संदेह में पड़े हुए हैं । आप हमसे सच्‍ची बात बताइये। ‘महाभाग नृपश्रेष्‍ठ ! यज्ञों के विषय में शास्‍त्र का मत कैसा है ? मुख्‍य - मुख्‍य पशुओं द्वारा यज्ञ करना अथवा बीजों एवं रसों द्वारा। यह सुनकर राजा वसु ने उन दोनों पक्षों के कथन में कितना सार या आसार है, इसका विचार न करके यों ही बोल दिया कि ‘जब जो वस्‍तु मिल जाय, उसी से यज्ञ कर लेना चाहिये’ इस प्रकार कहकर असत्‍य निर्णय देने के कारण चेदिराज वसु को रसातल में जाना पड़ा। अत: कोई संदेह उपस्‍थित होने पर स्‍वयम्‍भू भगवान् प्रजापति को छोड़कर अन्‍य किसी कहुज्ञ पुरुष को भी अकेले कोई निर्णय नहीं देना चाहिये। उस अशुद्ध बुद्धि वाले पापी पुरुष के दिये दान कितने ही अधिक क्‍यों न हों, वे सब – के – सब अनाहत होकर नष्‍ट हो जाते है। अधर्म में प्रवृत्‍त्‍ हुए दुर्बुद्धि दुरात्‍मा हिंसक मनुष्‍य जो दान देते हैं, उससे इहलोक या परलोक में उनकी कीर्ति नहीं होती। जो मूर्ख अन्‍यायोपार्जित धन का बारंबार संग्रह करके धर्म के विषय में संशय रखते हुए यजन करता है, उसे धर्म का फल नहीं मिलता। जो धर्मध्‍वजी, पापात्‍मा एवं नराधम है, वह लोक में अपना विश्‍वास जमाने के लिये ब्राह्मणों को दान देता है, धर्म के लिये नहीं। जो ब्राह्मण पापकर्म से धन पाकर उंछृखल हो राग और मोह के वशीभूत हो जाता है, वह अन्‍त में कलुषित गति को प्राप्‍त होता है। वह लोभ और मोह के वश में पड़कर संग्रह करने की बुद्धि को अपनाता है । कृपणतापूर्वक पैसे बटोरने का विचार रखता है । फिर बुद्धि को अशुद्ध कर देने वाले पापाचार के द्वारा प्राणियों को उद्वेग में डाल देता है। इस प्रकार जो मोहवश अन्‍याय से धन का उपार्जन करके उसके द्वारा दान या यज्ञ करता है, वह मरने के बाद भी उसका फल नहीं पाता ; क्‍योंकि वह धन पाप से मिला हुआ होता है। तपस्‍या के धनी धर्मात्‍मा पुरुष उंछ ( बीने हुए अन्‍न ), फल, मूल, शाक और जल पात्र का ही अपनी शक्‍ति के अनुसार दान करके स्‍वर्गलोक में चले जाते हैं। यही धर्म है, यही महान् योग है, दान, प्राणियों पर दया, ब्रह्मचर्य, सत्‍य, करुणा, धृति और क्षमा – ये सनातन धर्म के सनातन मूल हैं । सुना जाता है कि पूर्वकाल में विश्‍वामित्र आदि नरेश इसी से सिद्धि को प्राप्‍त हुए थे। विश्‍वामित्र, असित, राजाजनक, कक्षसेन, आर्ष्‍टिषेण और भूपाल सिन्‍धुद्वीप – ये तथा अन्‍य बहुत – से राजा तथा तपस्‍वी न्‍यायोपार्जित धन के दान और सत्‍य भाषण द्वारा परम सिद्धि को प्राप्‍त हुए हैं। भरतनन्‍दन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शुद्र जो भी तप का आश्रय लेते हैं, वे दान धर्म रूपी अग्‍नि से तपकर सुवर्ण के समान शुद्ध हो स्‍वर्गलोक को जाते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्‍वमेधिक पर्व के अन्‍तर्गत अनुगीता पर्व में हिंसा मिश्रित धर्म की निन्‍दा विषयक इक्‍यानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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