श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 34-42
दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय (पूर्वाध)
आप संसार की स्थिति के लिये समस्त देहधारियों को परम कल्याण प्रदान करने वाला विशुद्ध सत्वमय, सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मंगल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूप के प्रकट होने से ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टांगयोग, तपस्या और समाधि के द्वारा आपकी आराधना करेंगे? प्रभो! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्वमय निज स्वरुप न हो, तो अज्ञान औ उसके द्वारा होने वाले भेदभाव को नष्ट करनेवाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसी को न हो। जगत् में दीखने वाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परन्तु इन गुणों की प्रकाशक वृत्तियों से आपके स्वरुप का केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरुप का साक्षात्कार नहीं होता। (आपके स्वरुप का साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्वमय स्वरुप की सेवा करने पर आपकी कृपा से ही होता है) । भगवन्! मन और वेद-वाणी के द्वारा केवल आपके स्वरुप का अनुमान मात्र होता है। क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिए आपके गुण, जन्म और कर्म आदि के द्वारा आपके नाम और रूप का निरूपण नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रभो! आपके भक्जन उपासना आदि क्रियायोगों के द्वारा आपके मंगलमय नामों और रूपों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है औ आपके चरणकमलों की सेवा में ही अपना चित्त लगाये रहता है—उसे फिर जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में नहीं आना पड़ता है । सम्पूर्ण दुःखों को हरने वाले भगवन्! आप सर्वेश्वर हैं। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतार से इनका भार दूर हो गया। धन्य हैं! प्रभो! हमे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हमलोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिन्हों से युक्त चरणकमलों के द्वारा विभूषित पृथ्वी कको देखेंगे और स्वर्गलोक को भी आपकी कृपा से कृतार्थ देखेंगे । प्रभो! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्म के कारण के सम्बन्ध में हम कोई तर्क न करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका लीला-विनोद है। ऐसा कहने का कारण यह है कि आप तो द्वैत के लेश से रहित सर्वाधिष्ठानस्वरुप हैं औ इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञान के द्वारा आप में आरोपित हैं । प्रभो! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हमलोगों की और तीनों की रक्षा की है—वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण कीजिये। यदुनन्दन! हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं’ । [देवकीजी को संबोधित करके] ‘माताजी! यह बड़े शौभाग्य की बात है कि आपकी कोख में हम सबका कल्याण करने के लिये स्वयं भगवान् पुरूषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ पधारे हैं। अब आप कंस से तनिक भी मत डरिये। अब तो वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। आपका पुत्र यदुवंश की रक्षा करेगा’ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित्! ब्रम्हादि देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की। उनका रूप ‘यह है’ इस प्रकार निश्चितरूप से तो कहा नहीं जा सकता, सब अपनी-अपनी मति के अनुसार उसका निरूपण करते हैं। इसके बाद ब्रम्हा और शंकरजी को आगे करके देवगण स्वर्ग में चले गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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