महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 95-116
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: कर्ण पर्व
राजन् ! तब ब्रह्माजी ने मन और पवन के समान वेगशाली घोडों को उसी ओर बढ़ाया,जिस ओर दैत्यों और दानवों द्वारा सुरक्षित वे तीनों पुर थे। वे लोकपूजित अश्व ऐसे तीव्र वेग से चल रहै थे,मानो सारे आकाश को पी जायँगे। उस समय भगवान् शिव उन अश्वों के द्वारा देवताओं की विजय के लिये बड़ी शीघ्रता के साथ जा रहै थे। रथ पर आरूढ़ हो जब महादेवजी त्रिपुर की ओर प्रस्थित हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया। उस वृषभ का वह अत्यन्त भयंकर सिंहनाद सुनकर बहुत से देवशत्रु तारक नाम वाले दैत्यगण वहीं विनष्ट हो गये। दूसरे जो दैत्य वहाँ खड़े थे,ये युद्ध के लिये महादेवजी के सामने आये। महाराज ! तब त्रिशूलधारी महादेवजी क्रोध से आतुर हो उठे। फिर तो समस्त प्राणी भयभीत हो उठे। सारी त्रिलोकी और भूमि कांपने लगी। जब वे वहाँ धनुषपर बाण का संधान करने लगे,तब उसमें चन्द्रमा, अग्नि, विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र के क्षोभ से बड़े भयंकर निमित्त प्रकट हुए। धनुष के क्षोभ से वह रथ अत्यन्त शिथिल होने लगा। तब भगवान् नारायण ने उस बाण के एक भाग से बाहर निकलकर वृषभ का रूप धारण करके भगवान् शिव के विशाल रथ को ऊपर उठाया। जब रथ शिथिल होने लगा और शत्रु गर्जना करने लगे,तब महाबली भगवान् शिव ने बड़े वेग से गर्जना की। मानद ! उस समय वे वृषभ के मस्तक और घोड़े की पीठ पर खड़े थे। नरोत्तम ! भगवान् रुद्र ने वृषभ तथा घोड़े की भी पीठ पर सवार हो उस नगर को देखा। तब उन्होंने वृषभ के खुरों को चीर उन्हें दो भागों में बांट दिया और घोड़े के स्मन काट डाले। राजन् ! आपका कल्याण हो। तभी से बैलों के दो खुर हो गये और तभी से अद्भुत कर्म करने वाले बलवान् रुद्र के द्वारा पीडि़त हुए घोड़ों के स्तन नहीं उगे। तदनन्तर भगवान् रुद्र ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसके ऊपर पूर्वोक्त बाण को रक्खा और उसे पाशुपतास्त्र से संयुक्त करके तीनों पुरों के एकत्र होने का चिन्तन किया। महाराज ! इस प्रकार जब रुद्रदेव धनुष चढ़ाकर खड़े हो गये,उसी समय काल की प्रेरणा से वे तीनों पुर मिलकर एक हो गये। जतब तीनों एक होकर त्रिपुर-भाव को प्राप्त हुए,तब महामनस्वी देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। उस समय समस्त देवता,महर्षि और सिद्धगण महैश्वर की स्तुति करते हुए उनकी जय-जसकार करने लगे। तब असुरों का संहार करते हुए अवर्णनीय भयंकर रूपवाले असह्य तेजस्वी महादेवजी के सामने वह तीनों प्ररों का समुदाय सहसा प्रकट हो गया। फिर तो सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् रुद्र ने अपने उस दिव्य धनुष को खींचकर उस पर रक्खे हुए त्रिलोकी के सारभूत को छोड़ दिया। महाभाग ! उस समय उस श्रेष्ठ बाण के छूटते ही भूतल पर गिरते हुए उन तीनों पुरों का महान् आर्तनाद प्रकट हुआ। भगवान् ने उन असेरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया। इस प्रकार तीनों लोकों का हित चाहने वाले महैश्वर ने कुपित होकर उन तीनों पुरों तथा उनमें निवास काने वाले दानवों को दग्ध कर दिया। उनके अपने क्रोध से जो अग्नि प्रकट हुई थी,उसे भगवान् त्रिलोचन ने ‘हा-हा ‘कहकर रोक दिया और उससे कहा- ‘तू सम्पूर्ण जगत् को भस्म न कर।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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