चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 97-119 का हिन्दी अनुवाद
तब महादेव जी ने उनसे हंसते हुए कहा - 'देवि ! मेरी कृपा से केवल यज्ञ संबंधी चरूका द्रव पीने से मात्र से तुम्हें पति के सहयोग के बिना ही एक पुत्र प्राप्त होगा - इसमें संशय नहीं है । वह तुम्हारें वंश में तुम्हारें ही नाम से इच्छानुसार ख्याति प्राप्त करेगा'। मधुसूदन ! ऐश्वर्यशाली विकर्ण ने भक्त सुखदायक महादेवजी को प्रसन्न करके मनोवांछित सिद्धि प्राप्त की थी। केशव ! शाकल्य ऋषि के मन में सदा संशय बना रहता था । उन्होनें मनोमय यज्ञ (ध्यान) - के द्वारा भगवान शिक की नौ सौ वर्षों तक आराधनाप की। तब उनसे भी संतुष्ट होकर भगवान शंकर ने कहा - 'वत्स ! तुम ग्रन्थकार होओगे तथा तीनों लोकों में तुम्हारी अक्षय कीर्ति फैल जायेगी। 'तुम्हारा कुल अक्षय एवं महर्षियों से अलंकृत होगा । तुम्हारा पुत्र एक श्रेष्ठ ब्रह्माण एवं सूत्रकार होगा'। सत्ययुग में सावर्णिनाम से विख्यात एक ऋषि थे । उन्होंने यहां आकर छ: हजार वर्षों तक तपस्या की। तब भगवान रूद्र ने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर - 'अनघ ! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूं । तुम विश्वविख्यात ग्रन्थकार और अजर-अमर होओगो'। जनार्दन ! पहले की बात है, इन्द्र ने भक्तिभाव के साथ काशीपुरी में भस्म भूषित दिगम्बर महादेव जी की आराधना की । महादेवजी की आराधना करके ही उन्होनें देवराजपद प्राप्त किया। देवर्षि नारद ने भी पहले भक्तिभाव से भगवान शंकर की आराधना की थी । इससे संतुष्ट होकर गुरूस्वरूप देवगुरू महादेवजी ने उन्हें यह वरदान दिया कि 'तेज, तप और कीर्ति में कोई तुम्हारी समता करने वाला नहीं होगा । तुम गीत और वीणावादन के द्वारा सदा मेरा अनुसरण करोगे'। प्रभो ! तात माधव ! मैंने भी पूर्वकाल में साक्षात् देवाधिदेव पशुपति का जिस प्रकार दर्शन किया था, वह प्रसंग सुनिये। भगवन् ! मैंने जिस उदेद्श्य से प्रयत्नपूर्वक महातेजस्वी महादेवी जी को संतुष्ट किया था, वह सब विस्तारपूर्वक सुनिये। अनघ ! पूर्वकाल में मुझे देवाधिदेव महेश्वर से जो कुछ प्राप्त हुआ था, वह सब आज पूर्ण रूप से तुम्हें बताउंगा। तात ! पहले सत्ययुग में एक महायशस्वी ऋर्षि होगये हैं,जो व्याघ्रपाद नाम से प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे। उन्हीं का मैं पुत्र हूं । मेरे छोटे भाई का नाम धौम्य है । माधव ! किसीसमय मैं धौम्य के साथ खेलता हुआ पवित्रात्मा मुनियों के आश्रम पर आया। वहां मैंने देखा, एक दुधारू गाय दुही जा रही थी । वहीं मैंने दूध देखा, जो स्वाद में अमृत के समान होता है। तब मैंने बालस्वभाव वश अपनी माता से कहा - 'मां ! मुझे खाने के लिये दूध-भात दो'। घर में दूध का अभाव था, इसलिये मेरी माता को उस समय बड़ा दु:ख हुआ । माधव ! तब वह पानी में आटा घोलकर ले आयी और दूध कहकर दोनों को पीने के लिये दे दिया। तात ! उसके पहले एक दिन मैंने गाय का दूध पीया था । पिताजी यज्ञ के समय एक बड़े भारी धनी कुटुम्बी के घर मुझे ले गये थे । वहां दिव्य सुरभी गाय दूध दे रही थी। उस अमृत के समान स्वादिष्ट दूध को पीकर मैं यह जान गया था कि दूध का स्वाद कैसा होता है और उसकी उपलब्धि किस प्रकार होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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