महाभारत मौसल पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-17
द्वितीय (2) अध्याय: मौसल पर्व
- द्वारका में भयंकर उत्पात देखकर भगवान श्रीकृष्ण का यदुवंशियों को तीर्थयात्रा के लिये आदेश देना
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार वृष्णि और अन्धक वंश के लोग अपने ऊपर आने वाले संकट का निवारण करने के लिये भाँति-भाँति के प्रयत्न कर रहे थे और उधर काल प्रतिदिन सब के घरों में चक्कर लगाया करता था। उसका स्वरूप विकराल और वेश विकट था। उस के शरीर का रंग काला और पीला था। वह मूँड़ मुड़ाये हुए पुरूष के रूप में वृष्णि वंशियों के घरों में प्रवेश करके सब को देखता और कभी-कभी अदृश्य हो जाता था। उसे देखने पर बड़े-बड़े धनुर्धर वीर उस के ऊपर लाखों बाणों का प्रहार करते थे; पंरतु सम्पूर्ण भूतों का विनाश करने वाले उस काल को वे वेध नहीं पाते थे।
अब प्रतिदिन अनेक बार भयंकर आँधी उठने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। उस से वृष्णियों और अन्धकों के विनाश की सूचना मिल रही थी। चूहे इतने बढ़ गये थे कि वे सड़कों पर छाये रहते थे। मिट्टी के बरतनों में छेद कर देते थे तथा रात में सोये हुए मनुष्यों के केश और नख कुतरकर खा जाया करते थे। वृष्णिवंशियों के घरों में मैनाएँ दिन-रात चें-चें किया करती थीं। उनकी आवाज़ कभी एक क्षण के लिये भी बंद नहीं होती थी। भारत! सारस, उल्लुओं की, बकरे, गीदड़ो की बोली की नकल करने लगे। काल की प्रेरणा से वृष्णियों और अन्धकों के घरों में सफेद पंख और लाल पैरों वाले कबूतर घूमने लगे। गौओं के पेट से गदहे, खच्चरियों से हाथी, कुतियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उन दिनों वृष्णिवंशी खुल्लमखुल्ला पाप करते और उस के लिये लज्जित नहीं होते थे। वे ब्राह्मणों, देवताओं और पितरों से भी द्वेष रखने लगे।
इतना ही नहीं, वे गुरूजनों का भी अपमान करते थे। केवल बलराम और श्रीकृष्ण का ही तिरस्कार नहीं करते थे। पत्नियाँ पतियों को और पति अपनी पत्नियों को धोखा देने लगे। अग्नि देव प्रज्वलित होकर अपनी लपटों को वामावर्त घुमाते थे। उनसे कभी नीले रंग की, कभी रक्त वर्ण की और कभी मजीठ के रंग की पृथक-पृथक लपटें निकलती थीं। उस नगरी में रहने वाले लोगों को उदय और अस्त के समय सूर्य देव प्रतिदिन बारंबार कबन्धों से घिरे दिखायी देते थे। अच्छी तरह छौंक-बघार कर जो रसोइयाँ तैयार की जाती थीं, उन्हें परोसकर जब लोग भोजन के लिये बैठते थे तब उनमें हज़ारों कीड़े दिखायी देने लगते थे। जब पुण्याह वाचन किया जाता और महात्मा पुरूष जप करने लगते थे, उस समय कुछ लोगों के दौड़ने की आवाज़ सुनायी देती थी परंतु कोई दिखायी नहीं देता था। सब लोग बारंबार यह देखते थे कि नक्षत्र आपस में तथा ग्रहों के साथ भी टकरा जाते हैं परन्तु कोई भी किसी तरह अपने नक्षत्र को नहीं देख पाता था। जब भगवान श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य शंख बजता था, तब वृष्णियों और अन्धकों के घर के आस-पास चारों ओर भयंकर स्वर वाले गदहे रेंकने लगते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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