श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 44-50
एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)
प्यारे कृष्ण! आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिये परम मंगलमयी और कानों के लिये अमृतस्वरुप है। जिसे एक बार उस रस का चसका लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिये लालसा ही नहीं रह जाती। प्रभो! हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँ तक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आप के साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या, आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थिति में हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं ? हमने आपकी धारण की हुई माला पहली, आपके लगाये हुए चन्दन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहले और आपके धारण किये हुए गहनों से अपने-आप को सजाते रहे। हम आपकी जूठन खाने वाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी माया पर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अतः प्रभो! हमें आपकी माया का डर नहीं है, डर हैं तो केवल आपके वियोग का) । हम जानते हैं कि माया को पार कर लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रम्हचर्य का पालन करके अध्यात्मविद्या के लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकार की कठिन साधना से उन संन्यासियों के ह्रदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियों की शान्तिरूप नैष्कर्म्य-अवस्था में स्थित होकर आपके ब्रम्ह नामक धामको प्राप्त होते हैं । महायोगेश्वर! हम लोग तो कर्म-मार्ग में ही भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनों के साथ आपके गुणों और लीलाओं की चर्चा करेंगे तथा मनुष्य की-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और हास-परिहास की स्मृति में तल्लीन हो जायँगे। केवल इसी से हम दुस्तर माया को पार कर लेंगे। (इसलिए हमें माया से पार जाने की नहीं, आपके विरह की चिन्ता है। आप हमें छोडिये नहीं, साथ ले चलिये) ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब उद्धवजी ने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवक उद्धवजी से कहा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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