महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 93 श्लोक 41-58
त्रिनवतितम (93) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
जो आसुरी माया को जानते हैं, जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है तथा जो भयानक नेत्रों से युक्त हैं एवं जो कौओं के समान काले, दुराचारी, स्त्रीलम्पट और कलहप्रिय होते हैं वे यवन, पारद, शक और बाहोक भी वहां युद्ध के लिये उपस्थित हुए। मतवाले हाथियों के समान पराक्रमी द्राविड तथा नन्दिनी गाय से उत्पन्न हुए काल के समान प्रहारकुशल म्लेच्छ भी वहां युद्ध कर रहे थे। दार्वातिसार, दादर और पुण्ड्र आदि हजारों लाखों संस्कार- शून्य ग्लेच्छ वहां अपस्थित थे, जिनकी गणना नहीं की जा सकती थी। नाना प्रकार के युद्धों में कुशल वे सभी म्लेच्छगण पाण्डु पुत्र अर्जुन पर तीखे बाणों की वर्षा करके उन्हें आच्छादित करने लगे। तब अर्जुन ने उनके उपर भी तुरंत बाणों की वर्षा प्रारम्भ की। उनकी वह बाण-वृष्टि टिडडी-दलों की सृष्टि सी प्रतीत होती थी। बाणों द्वारा उस विशाल सेना पर बादलों की छाया-सी करके अर्जुन ने उपने अस्त्र के तेज से मुणिडत, अर्धमुणिडत, जटाधारी, अपवित्र तथा दाढ़ी भरे मुखवाले उन समस्त म्लेच्छों का, जो वहां एकत्र थे, संहार कर डाला। उस समय पर्वतों पर विचरने और पर्वतीय कन्दराओं में निवास करने वाले सैकड़ों म्लेचछ संघ अर्जुन के बाणों से विद्ध एवं भयभीत हो रणभूमि में भागने लगे । अर्जुन के तीखे बाणों से मरकर पृथ्वी पर गिरे हुए उन हाथीसवार और घुड़सवार म्लेच्छों का रक्त कौए, बुगले और भेड़िये बड़ी प्रसन्नता के साथ पी रहे थे। उस समय अर्जुन ने वहां रक्त की एक भयंकर नदी बहा दी, जो प्रलयकाल की नदी के समान डरावनी प्रतीत होती थी। उस में पैदल मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियों को बिछाकर मानो पुल तैयार किया गया था, बाणों की वर्षा ही नौका के समान जान पड़ती थी। केश सेवार और घास के समान जान पड़ते थे। उस भयंकर नदी से रक्त प्रवाह की ही तरगड़ें उठ रही थीं। कटी हुई अंगुलियां छोटी-छोटी मछलियों के समान जान पड़ती थीं। हाथी, घोड़े और रथों की सवारी करनेवाले राजकुमारों के शरीरों से बहने वाले रक्त से लबालब भरी हुई उस नदी को अर्जुन ने स्वयं प्रकट किया था। उसमें हाथियों की लाशें व्याप्त हो रही थी। जैसे इन्द्र के वर्षा करते समय उंचे-नीचे स्थल का भान नहीं होता है, उसी प्रकार वहां की सारी पृथ्वी रक्त की धारा में डुबकर समतल सी जान पड़़ती थी। क्षत्रियशिरोमणि अर्जुन ने वहां छ: हजार घुड़सवारों तथा एक हजार श्रेष्ठ शूरवीर क्षत्रियों को मृत्यु के लोक में भेज दिया। विधि पूर्वक् सुसज्जित किये गये हाथी सहस्त्रों बाणों से बिंधकर वज्र के मारे हुए पर्वतों के समान धराशायी हो रहे थे ।।54।। जैसे मद की धारा बहाने वाला मतवाला हाथी नरकुल के जंगलों को रौंदता चलता है, उसी प्रकार अर्जुन घोड़े, रथ और हाथियों सहित सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार करते हुए रण-भूमि में विचर रहे थे। जैसे वायुप्रेरित अग्रि सूखे इधन, तुण और लताओं से युक्त तथा बहुसंख्यक वृक्षों और लतागुल्मों से भरे हुए जंगल को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार श्री कृष्ण रुपी वायु प्रेरित हो बाणरुपी ज्वालाओं से युक्त पाण्डुपुत्र अर्जुन रुपी अग्रि ने कुपित होकर आपकी सेनारुप वन को दग्ध कर दिया। रथ की बैठकों को सुनी करके धरती पर मनुष्यों की लाशों-का बिछौना करते हुए चापधारी धनंजय उस युद्ध के मैदान में नृत्य –सा कर रहे थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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