महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 94 श्लोक 18-36
चतुर्नवतितम (94) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
‘लाल घोड़ों वाले आचार्य। आप कोई ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे सिन्धुराज जयद्रथ मृत्यु से छुटकारा पा सके। मैंने आर्त होने के कारण जो प्रलाप किये हैं, उनके लिये क्रोध न कीजियेगा; जैसे भी हो, सिन्धुराज की रक्षा कीजिये’।
द्रोणाचार्य ने कहा – राजन् तुमने जो बात कहीं है, उसके लिये मैं बुरा नहीं मानत; क्योंकि तुम मेरे लिये अश्रवत्थामा के समान हो। पंरतु जो सच्ची बात है, वह तुम्हें बता रहा हूं; उसे ध्यान देकर सुनो। श्री कृष्ण अर्जुन के श्रेष्ठ सारथि हैं तथा उनके उत्तम घोड़े भी तेज चलने वाले हैं। इसलिये थोड़ा-सा भी अवकाश बनाकर अर्जुन तत्काल सेना में घुस जाते हैं।क्या तुम देखते नहीं हो कि मेरे चलाये हुए बाणसमूह शीघ्रगामी अर्जुन के रथ के एक कोस पीछे पड़े हैं। मैं बूढ़ा हो गया। अत: अब मैं शीघ्रतापूर्वक रथ चलाने में असमर्थ हूं। इधर मेरी सेना के सामने यह कुन्तीकुमारों की भारी सेना उपस्थित है। महाबाहो। मैंने क्षत्रियों के बीच में यह प्रतिज्ञा की है कि समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते युधिष्ठिर को कैद कर लूंगा। नरेश्वर । इस समय युधिष्ठिर अर्जुन से सहित होकर मेरे सामने खड़े हैं। ऐसी अवस्था में व्यूहका द्वारा छोड़कर अर्जुन के साथ युद्ध करने के लिये नहीं जाउंगा। तुम्हारे शत्रु भी तो तुम्हारे-जैसे ही कुल और पराक्रम से युक्त हैं। इस समय वे अकेले हैं और तुम सहायकों से सम्पन्न हो। (वे राज्य से च्युत हो गये हैं और तुम) इस सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हो। अत: डरो मत । जाकर अर्जुन से युद्ध करो। तुम राजा, शूरवीर, विद्वान और युद्ध कुशल हो। वीर। तुमने ही पाण्डवों के साथ वैर बांधा है । अत: जहां कुन्तीकुमार अर्जुन गये हैं, वहां उनसे युद्ध करने के लिये स्वयं ही शीघ्रतापूर्वक जाओ।
दुर्योधन बोला-आचार्य । आप सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं। जो आपको भी लांघकर आगे बढ़ गया, वह अर्जुन मेरे द्वारा कैसे रोका जा सकता है। युद्ध में व्रजधारी इन्द्र को भी जीता जा सकता है; परंतु समरागड़ण में शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले अर्जुन को जीतना असम्भव। जिसने भोजवंशी कृतवर्मा तथा देवताओं के समान तेजस्वी आपको भी अपने अस्त्र के प्रताप से पराजित कर दिया, श्रुतायुध को भी मार डाला, श्रुतायु, अच्युतायु तथा सहस्त्रों म्लेच्छ सैनिकों के भी प्राण ले लिये, युद्ध में अग्रि के समान शत्रुओं को दग्ध करने वाले और अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता उस दुर्धर्ष वीर पाण्डपुत्र अर्जुन के साथ मैं कैसे युद्ध कर सकूंगा। यदि आज युद्ध स्थल में आप अर्जुन के साथ मेरा युद्ध करना उचित मानते हैं तो मैं एक सेवक की भांति आपकी आज्ञा के अधीन हूं। आप मेरे यज्ञ की रक्षा कीजिये।
द्रोणाचार्य ने कहा- कुरुनन्दन । तुम ठीक कहते हो । अर्जुन अवश्य दुर्जय वीर हैं। परंतु मैं एक ऐसा उपाय कर दूंगा, जिससे तुम उनका वेग सह सकोगे। आज संसार के सम्पूर्ण धनुर्धर भगवान् श्री कृष्ण के सामने ही कुन्तीकुमार अर्जुन को तुम्हारे साथ युद्ध में उलझे रहने की अभ्दुत घटना देखें। राजन् । मैं यह सुवर्णमय कवच तुम्हारे शरीर में इस प्रकार बांध देता हूं, जिससे युद्ध स्थल में छुटने वाले बाण और अन्य अस्त्र तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकेंगे।यदि मनुष्यों सहित देवता, असुर, यक्ष, नाग, राक्षक तथा तीनों लोक के प्राणी युद्ध करते हों तो भी आज तुम्हें कोई भय नहीं होगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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