श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 14-21
एकादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)
इसलिये उद्धव! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुनने योग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्मस्वरुप मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरण में आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ।
उद्धवजी ने कहा—सनकादि योगेश्वरों के भी परमेश्वर प्रभो! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मन का सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिये या सब कुछ छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधा में लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भलीभाँति समझाइये ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! जिस परमात्मा का परोक्षरूप से वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति—जीवन-दान करने वाले हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरुप परा वाणी नामक प्राण के साथ मूलाधार चक्र में प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरक चक्र (नाभि-स्थान) में आकर पश्यन्ती वाणी का मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में व्यक्त होते हैं। फिर क्रमशः मुख में आकर हृस्व-दीर्घादि मात्र, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्ण रूप स्थूल—वैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं । अग्नि आकाश में उष्मा अथवा विद्युत् के रूप से अव्यक्त रूप में स्थित है। अब बलपूर्वक काष्ठ मन्थन किया जाता है, तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर आहुति देने पर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रम्हस्वरुप से क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ । इसी प्रकार बोलना, हाथों से का करना, पैरों से चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से बल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मन से संकल्प-विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहंकार के द्वारा अभिमान करना, महतत्व के रूप में सबका ताना-बाना बुनना तथा सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सारे विकार; कहाँ तक कहूँ—समस्त कर्ता, करण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं । यह सबको जीवित करने वाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रम्हाण्ड-कमल का कारण है। यह आदि पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगति से माया का आश्रय लेकर शक्ति-विभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है । जैसे तागों के ताने-बाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मा में ही ओतप्रोत है। जैस सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है, किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत् के न रहने पर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मास्वरुप ही है—परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसार वृक्ष अनादि और प्रवाह रूप से नित्य है। इसका स्वरुप ही है—कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल हैं—मोक्ष और भोग।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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