श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 52 श्लोक 32-40

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दशम स्कन्ध: द्विपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (52) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 32-40 का हिन्दी अनुवाद

यदि इन्द्र का पद पाकर भी किसी को सन्तोष न हो तो उसे सुख के लिये एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्ति से बैठ नहीं सकेगा। परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकार से सन्तापरहित होकर सुख की नींद सोता है । जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहंकार रहित और शान्त हैं—उन ब्राम्हणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ । ब्राम्हणदेवता! राजा की ओर से तो आप लोगों को सब प्रकार की सुविधा है न ? जिसने राज्य में प्रजा का अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्द से रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है । ब्राम्हणदेवता! आप कहाँ से, किस हेतु से और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय ने हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’परीक्षित्! लीला से ही मनुष्य रूप धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राम्हण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान् से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे ।

रुक्मिणीजी ने कहा है—त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते ह्रदय में प्रवेश करके एक-एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्रवाले जीवों के नेत्रों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है । प्रेमस्वरुप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टि से देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम—सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये—ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणी और धर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रम में वरण न करेगी ? इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे ह्रदय की बात आपसे छिपी नहीं हैं। आप यहाँ पधार कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय । मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (याज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राम्हण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान् परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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