श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 18-25

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एकादश स्कन्ध : अष्टाविंशोऽध्यायः (28)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंशोऽध्यायः श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद


आत्मा और अनात्मा के स्वरुप को पृथक्-पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है तपस्या के द्वारा ह्रदय को शुद्ध करके वेदादि शास्त्रों का श्रवण करना। इनके अतिरिक्त श्रवणानुकुल युक्तियाँ, महापुरुषों के उपदेश और इन दोनों से अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं। सबका सार यही निकलता है कि इस संसार के आदि में जो था तथा अन्त में जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीच में भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है । उद्धवजी! सोने के कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण बनते हैं; परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीच में उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत् का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तव में मैं ही सत्य तत्व हूँ । भाई उद्धव! मन की तीन अवस्थाएँ होती हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओं के कारण तीन ही गुण हैं सत्व, रज और तम, और जगत् के तीन भेद हैं—अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता) । ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदि में यह त्रिविधता न रहने पर भी जिसकी सत्ता बनी रहती हैं, वह तुरीयतत्व—इन तीनों से परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रम्हतत्व ही सत्य है ।जो उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय के पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीच में भी वह है नहीं—केवल कल्पना मात्र, नाम मात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरुप है, वही उसकी परमार्थ-सत्ता है—यह मेरा दृढ़ निश्चय है । यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होने पर भी दीख रही है। यह स्वयं प्रकाश ब्रम्ह ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जितने चित्र-विचित्र नाम रूप हैं उनके रूप में ब्रम्ह ही प्रतीत हो रहा है । ब्रम्हविचार के साधन हैं—श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उसमें सहायक हैं—आत्मज्ञानी गुरुदेव! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूप से देहादि अनात्म पदार्थों का निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेध के द्वारा आत्मविषयक सन्देहों को छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरुप आत्मा में ही मग्न हो जाय और सब प्रकार की विषयवासनाओं से रहित हो जाय । निषेध करने की प्रक्रिया यह है कि पृथ्वी का विकार होने के कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता प्राण वायु, जल अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीर के समान ही अन्न के द्वारा होता है। बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड़ हैं । उद्धवजी! जिसे मेरे स्वरुप भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं तो उनसे हानि भी क्या है ? क्योंकि अन्तःकरण और बाह्यकरण—सभी गुणमय हैं और आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाश में बादलों के छा जाने अथवा तितर-बितर हो जाने से सूर्य का क्या बनता-बिगड़ता है ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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