महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 91 श्लोक 20-41

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एकनवतितम (91) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद

'दशार्हनंदन मधुसूदन ! आपका उद्देश्य सफल हो या न हो, हम लोग तो आपके सम्मान का प्रयत्न करते ही हैं; किन्तु हमें सफलता नहीं मिल रही है। 'मधुदैत्य का विनाश करने वाले पुरुषोत्तम ! हमें ऐसा कोई कारण जान नहीं पड़ता, जिसके होने से आप हमारी प्रेमपूर्वक अर्पित की हुई पूजा ग्रहण न कर सकें। 'गोविंद ! आपके साथ हम लोगों का न तो कोई वैर है और न झगड़ा ही है । इन सब बातों का विचार करके आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए'। वैशम्पायन जी कहते हैं – राजन् ! यह सुनकर दशार्हकुलभूषण जनार्दन ने मंत्रियों सहित दुर्योधन की ओर देखते हुए हँसते हुए-से उत्तर दिया। 'राजन ! मैं काम से, क्रोध से, द्वेष से, स्वार्थवश, बहानेबाजी अथवा लोभ से किसी भी प्रकार धर्म का त्याग नहीं कर सकता । 'किसी के घर का अन्न या तो प्रेम के कारण भोजन किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर । नरेश्वर ! प्रेम तो तुम नहीं रखते और किसी आपत्ति में हम नहीं पड़े हैं। 'राजन ! पांडव तुम्हारे भाई ही हैं; वे अपने प्रेमियों का साथ देनेवाले और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हैं, तथापि तुम जन्म से ही उनके साथ अकारण ही द्वेष करते हो। बिना कारण ही कुंतीपुत्रों के साथ द्वेष रखना तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है । पांडव सदा अपने धर्म में स्थित रहते हैं, अत: उनके विरुद्ध कौन क्या कह सकता है ? जो पांडवों से द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है । तुम मुझे धर्मात्मा पांडवों के साथ एकरूप हुआ ही समझो। जो काम और क्रोध के वशीभूत होकर मोहवश किसी गुणवान पुरुष के साथ विरोध करना चाहता है, उसे पुरुषों में अधम कहा गया है। जो कल्याणमय गुणों से युक्त अपने कुटुम्बीजनों को मोह और लोभ की दृष्टि से देखना चाहता है, वह अपने मन और क्रोध को न जीतनेवाला पुरुष दीर्घकाल तक राजलक्ष्मी का उपभोग नहीं कर सकता। जो अपने मन को प्रिय न लगने वाले गुणवान व्यक्तियों को भी अपने प्रिय व्यवहार द्वारा वश में कर लेता है, वह दीर्घकाल तक यशस्वी बना रहता है । जो द्वेष रखता हो, उसका अन्न नहीं खाना चाहिए । द्वेष रखनेवाले को खिलाना भी नहीं चाहिए । राजन् ! तुम पांडवों से द्वेष रखते हो और पांडव मेरे प्राण हैं।तुम्हारा यह सारा अन्न दुर्भावना से दूषित है । अत: मेरे भोजन करने योग्य नहीं है । मेरे लिए तो यहाँ केवल विदुर का ही अन्न खाने योग्य है । यह मेरी निश्चित धारणा है। अमर्षशील दुर्योधन से ऐसा कहकर महाबाहु श्रीकृष्ण उसके भव्य भवन से बाहर निकले। वहाँ से निकलकर महामना महाबाहु भगवान वासुदेव ठहरने के लिए महात्मा विदुर के भवन में गए। उस समय द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म, बाह्लिक तथा अन्य कौरवों ने भी महाबाहु श्रीकृष्ण का अनुसरण किया । विदुर के घर में ठहरे हुए यदुवंशी वीर मधुसूदन से वे सब कौरव बोले- वृष्णिनन्दन ! हम लोग रत्न- धन से सम्पन्न अपने घरों को आपकी सेवा में समर्पित करते हैं। तब महातेजस्वी मधुसूदन ने कौरवों से कहा– आप सब लोग अपने घरों को जाएँ; आपके द्वारा मेरा सारा सम्मान सम्पन्न हो गया। कौरवों के चले जाने पर विदुरजी ने कभी पराजित न होनेवाले दशार्हनंदन श्रीकृष्ण को समस्त मनोवांछित वस्तुएँ समर्पित करके प्रयत्नपूर्वक उनका पूजन किया। तदनंतर उन्होनें अनेक प्रकार के पवित्र एवं गुणकारक अन्न-पान महात्मा केशव को अर्पित किए। मधुसूदन ने उस अन्न-पान से पहले ब्राह्मणों को तृप्त किया, फिर उन्होनें उन वेदवेत्ताओं को श्रेष्ठ धन भी दिया। तदनंतर देवताओं सहित इन्द्र की भाँति अनुचरों सहित भगवान् श्रीकृष्ण ने विदुरजी के पवित्र एवं गुणकारक अन्न-पान ग्रहण किए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण – दुर्योधन संवाद विषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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