महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-15
द्विनवतितम (92) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
- विदुरजी का धृतराष्ट्र पुत्रों की दुर्भावना बताकर श्रीकृष्ण को उनके कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! रात में जब भगवान श्रीकृष्ण भोजन करके विश्राम कर रहे थे, उस समय विदुरजी ने उनसे कहा – 'केशव ! आपने जो यहाँ आने का विचार किया, यह मेरी समझ में अच्छा नहीं हुआ। 'जनार्दन ! मंदमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनों का उल्लंघन कर चुका है । वह क्रोधी, दूसरों के सम्मान को नष्ट करनेवाला और स्वयं सम्मान चाहनेवाला है । उसने बड़े-बूढ़े गुरुजनों के आदेश को भी ठुकरा दिया है। 'प्रभों ! मूढ़ धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन धर्मशास्त्रों की भी आज्ञा नहीं मानता; सदा अपनी ही हठ रखता है । उस दुरात्मा को सन्मार्ग पर ले आना असंभव है। 'उसका मन भोगों में आसक्त है, वह अपने को पंडित मानता, मित्रों के साथ द्रोह करता और सबको संदेह की दृष्टि से देखता है। वह स्वयं तो किसी का उपकार करता ही नहीं, दूसरों के किए हुए उपकार को भी नहीं मानता। वह धर्म को त्यागकर असत्य से ही प्रेम करने लगा है। 'उसमें विवेक का सर्वथा अभाव है, उसकी बुद्धि किसी एक निश्चय पर नहीं रहती तथा वह अपनी इंद्रियों को काबू में रखने में असमर्थ है । वह अपनी इच्छाओं का अनुसरण करनेवाला तथा सभी कार्यों में अनिश्चित विचार रखनेवाला है। 'ये तथा और भी बहुत से दोष उसमें भरे हुए हैं । आप उसे हित की बात बताएँगे, तो भी वह क्रोधवाश उसे स्वीकार नहीं करेगा। 'वह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा जयद्रथ पर अधिक भरोसा रखता है; अत: उसके मन में संधि करने का विचार ही नहीं होता है। 'जनार्दन ! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों तथा कर्ण की यह निश्चित धारणा है कि कुंती के पुत्र भीष्म एवं द्रोणाचार्य आदि वीरों की ओर देखने में भी समर्थ नहीं हैं। 'मधुसूदन ! मूर्ख एवं बुद्धिहीन दुर्योधन राजाओं की सेना एकत्र करके अपने आपको कृतकृत्य मानता है। 'दुर्बुद्धि दुर्योधन को तो इस बात का भी दृढ़ विश्वास है कि अकेला कर्ण ही शत्रुओं को जीतने में समर्थ है; इसलिए वह कदापि संधि नहीं करेगा। 'केशव ! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों ने यह पक्का विचार कर लिया है कि हमें पांडवों को उनका यथोचित राज्यभाग नहीं देना चाहिए । यही उनका दृढ़ निश्चय है । इधर आप संधि के लिए प्रयत्न करते हुये उनमें उत्तम भ्रातभाव जगाना चाहते हैं; परंतु उन दुष्टों के प्रति आप जो कुछ भी कहेंगे, वह सब व्यर्थ ही होगा। 'मधुसूदन ! जहां अच्छी और बुरी बातों का एक सा ही परिणाम हो, वहाँ विद्वान पुरुष को कुछ नहीं कहना चाहिए । वहाँ कोई बात कहना बहरों के आगे राग अलापने के समान व्यर्थ ही है। 'माधव ! जैसे चांडालों के बीच में किसी विदवान् ब्राहमन का उपदेश देना उचित नहीं है, उसी प्रकार उन मूर्ख और अज्ञानियों के समीप आपका कुछ भी कहना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। 'मूढ़ दुर्योधन सैन्यसंग्रह करके अपने को शक्तिशाली समझता है । वह आपकी बात नहीं मानेगा । उसके प्रति कहा हुआ आपका प्रत्येक वाक्य निरर्थक होगा।
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