महाभारत वन पर्व अध्याय 309 श्लोक 1-18

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नवाधिकत्रिशततम (309) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

महाभारत: वन पर्व: नवाधिकत्रिशततम श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


अधिरथ सूत तथा उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति, राधा के द्वारा उसका पालन, हस्तिनापुर में उसकी शिक्षा-दीक्षा तथा कर्ध के पास इन्द्र का आगमन वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इसी समय राजा धृतराष्ट्र का मित्र अधिरथ सूत अपनी स्त्री के साथ गंगा के तट पर गया। राजन् ! उसकी परम सौभाग्यवती पत्नी इस भूतल पर अनुपम सुन्दरी थी। उसका नाम था राधा। उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। राधा पुत्र प्राप्ति के लिये विशेष यत्न करती रहती थी। दैवयोग से उसी ने गंगाजी के जल में बहती हुई उस पिटारी को देखा। पिटारी के ऊपर उसकी रक्षा के लिये लता लपेट दी गयी थी और सिन्दूर का लेप लगा होने से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। गंगा की तरगों के थपेड़े खाकर वह पिटारी तअ के समीप आ लगी। भामिनी राधा ने कौतूहलवश उस पिटारी को सेवकों से पकड़वा मँगाया और अणिरत सूत को इसकी सूचना दी। 1816 अणिरथ ने उस पिटारी को पानी से बाहर निकालकर जब यन्त्रों (औजारो) द्वारा उसे खोला, तब उसके भीतर एक बालक को देखा। वह बालक प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी था। उसने अपने अंगों में स्वर्णमय कवच धारण कर रक्खा था। उसका मुख कानों में पड़े हुए दो उज्जवल कुण्डलों से प्रकाशित हो रहा था। उसे देखकर पत्नी सहित सूत के नेत्रकमल आश्चर्य एवं प्रसन्नता के खिल उठे। उसने बालक को गोद में लेकर अपनी पत्नी से कहा- ‘भीरु ! भाविनी ! जब से मैं पैदा हुआ हूँ, तब से आज ही मैंने ऐसा अद्भुत बालक देखा है। मैं समझता हूँ, यह कोई देवबालक ही हमें भाग्यवश प्रापत हुआ है। ‘मुझ पुत्रहीन को अवश्य ही देवताओं ने दया करके यह पुत्र प्रदान किया है।’ राजन् ! ऐसा कहकर अधिरथ ने वह पुत्र राधा को दे दिया। राधा ने भी कमल के भीतरी भाग के समान कान्मिान्, शोभाशाली तथा दिव्यरूपधारी उस देवबालक को विघिपूर्वक ग्रहण किया। निश्चय ही दैव की प्रेरणा से राधा के स्तनों से दूध भी झरने लगा। उसने विधिपूर्वक उस बालक का पालन-पोषण किया और वह धीरे-धीरे सबल होकर दिनोंदिन बढ़ते लगा। तभी से उस सूत-दम्पति के और भी अनेक औरस-पुत्र उत्पन्न हुए। तदनन्तर वसु (सुवर्ण) मय कवच धारण किये तथा सोने के ही कुण्डल पहने हुए उस बालक को देखकर ब्राह्मणों ने उसका नाम ‘वसुषेण’ रक्खा। इस प्रकार वह अमित पराक्रमी एवं सामथ्र्यशाली बालक सूतपुत्र बन गया। लोक में ‘वसुषेण’ और ‘वृष’ इन दो नामों से उसकी प्रसिद्धि हुई। अधिरथ सूत का यह पराक्रमी श्रेष्ठ पुत्र अंगदेश में पालित होकर दिनोंदिन बढ़ने लगा। कुन्ती ने गुप्तचर भेजकर मालूम कर लिया था कि मेरा दिव्य कवचधारी पुत्र अधिरथ के यहाँ पल रहा है। अधिरथ सूत ने अपने पुत्र को बड़ा हुआ देख उसे यथा समय हस्तिनापुर ळोज दिया। वहाँ उसने धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये आचार्य द्रोण की शिष्यता स्वीकार की। इस प्रकार पराक्रमी कर्ण की दुर्योधन के साथ मित्रता हो गयी। वह द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा परशुराम से चारों प्रकार की अस्त्र विद्या सीखकर संसार में एक महान् धनुर्धर के रूप में विख्यात हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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