सप्तनवतितम (97) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व:सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- कण व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाते हुए मातली का उपाख्यान आरंभ करना
वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! जमदग्निनन्दन परशुराम का यह वचन सुनकर भगवान् कन्व मुनि ने भी कौरव सभा में दुर्योधन से यह बात कही। कणव बोले – राजन् ! जैसे लोकपितामह ब्रह्माअक्षय और अविनाशी है; उसी प्रकार वे दोनों भगवान् नर-नारायण ऋषि भी हैं। अदिति के सभी पुत्रों में अथवा सम्पूर्ण आदित्यों में एकमात्र भगवान् विष्णु ही अजेय, अविनाशी, नित्य विद्यमान एवं सर्वसमर्थ सनातन परमेश्वर हैं। अन्य सब लोग तो किसी न किसी निमित्त से मृत्यु को प्राप्त होते ही हैं । चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ग्रह तथा नक्षत्र – ये सभी नाशवान हैं । जगत् का विनाश होने के पश्चात ये चंद्र, सूर्य आदि तीनों लोकों का सदा के लिए परित्याग करके नष्ट हो जाते हैं । फिर सृष्टिकाल में इन सबकी बारबार सृष्टि होती है। इनके सिवा ये दूसरे जो मनुष्य, पशु, पक्षी, तथा जीवलोक में विचरने वाले अन्यान्य तिर्यग योनि के प्राणी हैं; वे अल्पकाल में ही काल के गाल में चले जाते हैं। राजालोग भी प्राय: राजलक्ष्मी का उपभोग करके आयु की समाप्ति होने पर मृत्यु होने के पश्चात अपने पाप-पुण्य का फल भोगने के लिए पुन: नूतन जन्म ग्रहण करते हैं। राजन् ! आपको धर्मपुत्र युधिष्ठिर के साथ संधि कर लेनी चाहिए । मैं चाहता हूँ कि पांडव तथा कौरव दोनों मिलकर इस पृथ्वी का पालन करें। पुरुषरत्न सुयोधन ! तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि मैं ही सबसे अधिक बलवान हूँ; क्योंकि संसार में बलवानों से भी बलवान पुरुष देखे जाते हैं। कुरुनंदन ! बलवानों के बीच में सैनिक बल को बल नहीं समझा जाता है। समस्त पांडव देवताओं के समान पराक्रमी हैं; अत: वे ही तुम्हारी अपेक्षा बलवान हैं। इस प्रसंग में कन्यादान करने के लिए वर ढूँढनेवाले मातलि के इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं । त्रिलोकीनाथ इन्द्र के प्रिय सारथी का नाम मातलि है । उनके कुल में उन्हीं की एक कन्या थी, जो अपने रूप के कारण सम्पूर्ण लोकों में विख्यात थी। वह देवरूपिणी कन्या गुणकेशी के नाम से प्रसिद्ध थी । गुणकेशी अपनी शोभा तथा सुंदर शरीर की दृष्टि से उस समय की सम्पूर्ण स्त्रियों से श्रेष्ठ थी। राजन् ! उसके विवाह का समय आया जान मातलि ने एकाग्रचित हो उसी के विषय में चिंतन करते हुए अपनी पत्नी के साथ विचार-विमर्श किया। 'जिनका शीलस्वभाव श्रेष्ठ है, जो ऊंचे कुल में उत्पन्न हुए यशस्वी तथा कोमल अंत:करण वाले हैं, ऐसे लोगों के कुल में कन्या का उत्पन्न होना दुःख की ही बात है। 'कन्या मातृकुल को, पितृकुल को तथा जहां वह ब्याही जाती है, उस कुल को-सत्पुरुषों के इन तीनों कुलों को संशय में डाल देती है। 'मैंने मानवदृष्टि के अनुसार देवलोक तथा मनुष्यलोक दोनों में अच्छी तरह घूम फिरकर कन्या के लिए वर का अन्वेषन किया है, पर वहाँ कोई भी वर मुझे पसंद नहीं आ रहा है'। कणव मुनि कहते हैं – मातलि ने वर के लिए बहुत-से देवताओं, दैत्यों, गन्धर्वों और मनुष्यों तथा ऋषियों को भी देखा; परंतु कोई उन्हें पसंद नहीं आया। तब उन्होनें रात में अपनी पुत्री सुधर्मा के साथ सलाह करके नागलोक में जाने का विचार क्या। वे अपनी पत्नी से बोले – 'देवी ! देवताओं और मनुष्यों में तो गुणकेशी के योग्य कोई रूपवान वर नहीं दिखाई देता । नागलोक में कोई-न-कोई उसके योग्य वर अवश्य होगा'। सुधर्मा से ऐसी सलाह करके मातलि ने इष्टदेव की परिक्रमा की और कन्या का मस्तक सूंघकर रसातल में प्रवेश किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के वर खोजने से संबंध रखनेवाला सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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