सप्तनवतितमो (97) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: सप्तनवतितमोअध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
महर्षि अगस्त्य का लोपामुद्रासे विवाह, गंगाद्वार में तपस्या एवं पत्नी की इच्छा से धनसंग्रह के लिये प्रस्थान
लोमशजी कहते हैं– युधिष्ठिर! जब मुनिवर! अगस्त्यजी को यह मालूम हो गया कि विदर्भराजकुमारी मेरी गृहस्थी चलाने के योग्य हो गयी है, तब वे विदर्भनरेश के पा जाकर बोले । ‘राजन्! पुत्रोउत्पति के लिये मेरा विवाह करने का विचार है। अत: महीपाल! मैं आपकी कन्या का वरण करता हू। आप लोपामुद्रा को मुझे दे दीजिये । मुनिवर अगस्त्य के ऐसा कहने पर विदर्भराज के होश उड़ गये । वे न तो अस्वीकार कर सके और न उन्होंने अपनी कन्या देने की इच्इा ही की । तब विदर्भनरेश अपनी पत्नी के पास जाकरबोले ‘प्रिय! ये महर्षि अगस्त्य बडे़ शक्शिाली हैं। यदि कुपित हों तो हमें शाप की अग्नि से भस्म कर सकते हैं’ । तब रानीसहित महाराज को इस प्रकार दुखी देख लोपामुद्रा उनके पास गयी, और समय के अनुसार इस प्रकार बोली । ‘राजन्! आपको मेरे लिये दु:ख नहीं मानना चाहिेए। पिताजी! आप मुझे अगस्त्यजी की सेवा में दे दें और मेरे द्वारा अपनी रक्षा करें’ । युधिष्ठिर! पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने महात्मा अगस्त्यमुनि को विधिपूर्वक अपनी कन्या लोपामुद्रा ब्याह दी । लोपामुद्रा को पत्नीरुप में पाकर महर्षि अगस्त्य ने उससे कहा – ‘ये तुम्हारे अस्त्र और आभूषण बहुमूल्य हैं। इन्हें उतार दो’। तब कदली के समान जांघ तथा विशाल नेत्रोवाली लोपापुद्रा ने अपने बहुमूल्य, महीन एवं दर्श्नीय वस्त्र उतार दिये और फटें पुराने वस्त्र तथा वल्कल और मृगचर्म धारण कर लिये। वह विशालनयनी बाला पति के समान ही व्रत और आचार का पालन करनेवाल हो गयी । तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ भगवान् अगस्त्य मुनी अनुकूल पत्नी के साथ गंगा द्वारा में आकर घोर तपस्या में संलग्न हो गये । लोपामुद्रा बड़ी ही प्रसन्नता और विशेष आदर के साथ पतिदेव की सेवा करने लगी। शक्तिशाली महर्षि अगस्त्यजी अपनी पत्नी पर बड़ा प्रेम रखते थे ।
राजन्! जब इसी प्रकार बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन भगवान् अगस्त्यमुनि ने ऋतुस्नान से निवृत हुई पत्नी लोपामुद्रा को देखा। वह तपस्या के तेज से प्रकाशित हो रही थी। महर्षि ने अपनी पत्नी की सेवा, पवित्रता,इन्द्रिय संयम,शोभा तथा रुप – सौन्दर्य से प्रसन्न होकर उसे मैथुन के लिये पास बुलाया । तब अनुरागिणी लोपामुद्रा कुछ लज्जित सी हो हाथ जोड़कर बडे प्रेम से भगवान् अगस्त्य से बोली । महर्षें! इसमें संदेह नहीं कि पतिदेव ने अपनी इस पत्नी को संतान के लिये ही ग्रहण किया है, पंरतु आपके प्रति मेरे हृदय में जो प्रीति है, वह भी आपको सफल करनी चाहिये । ‘ब्राह्माण! मैं अपने पिता के घर उनके महल में जैसी शय्या पर सोया करती थी, वैसी ही शय्या पर आप मेरे साथ समागम करें । ‘मैं चाहती हूँ कि आप सुन्दर हार और आभूषण से विभूषित हों और मैं भी दिव्य अलंकारें से अलंकृत हो इच्छानुसार आपके साथ समागम-सुख का अनुभव करूँ ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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