महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 1-16
त्रयोदशाधिकत्रिशततम (312) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)
यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर तथा युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट हुए यक्ष का चारों भाइयों के जीवित होने का वरदान देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! युधिष्इिर ने इन्द्र के समान गौरवशाली अपने भाइयों को सरोवर के तट पर निर्जीव की भाँति पड़े हुए देखा; मानो प्रलयकाल में सम्पूर्ण लोकपाल अपने लोकों से भ्रष्ट होकर गिर गये हों । अर्जुन मरे पड़े थे; उनके धनुष-बाण इघर बिखरे पड़े थे। भीमसेन और नकुल-सहदेव भी प्राणरहित हो निश्चेष्ट हो गये थे। इन सबको देखकर युधिष्ठिर गरम-गरम लंबी साँसें खींचने लगे। उनके नेत्रों से शोक के आँसू उमड़कर उन्हें भिगो रहे थे। अपने समस्त भ्राताओं को इस प्रकार धराशायी हुए देख महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिर गहरी चिन्ता में डूब गये और देर तक विलाप करते रहे । वे बोले- ‘महाबाहु वृकोदर ! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं युद्ध में अपनी गदा से दुर्योधन की दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा।’ महाबाहो ! तुम कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले थे। तुम्हारा हृदय विशाल था। वीर ! आज तुम्हारे गिर जाने से मेरे लिये सब कुछ व्यर्थ हो गया । ‘साधारण मनुष्यों की बातें तथा उनकी प्रतिज्ञाएँ तो झूठी निकल जाती हैं; परंतु तुम लोगों के सम्बन्ध में जो दिव्य वाणियाँ हुई थीं, वे कैसे मिथ्या हो सकती हैं ? ‘‘धनंजय ! जब तुम्हारा जन्म हुआ था, उस समय देवताओं ने भी कहा था कि ‘कुन्ती ! तुम्हारा य िपुत्र सहस्त्रनेत्रधारी इन्द्र से भी किसी बात में कम न होगा।’ उत्तर परियात्र पर्वत पर सब प्राणियों ने तुम्हारे विषय में यही कहा था कि ‘ये अर्जुन शीघ्र ही पाण्डवों की खोयी हुई राजलक्ष्मी को पुनः लौटा लायेंगे। युद्ध में कोई भी इन पर विजय पाने वाला न होगा और ये भी किसी को परास्त किये बिना न रहेंगे’’। ‘वे ही महाबली अर्जुन आज मृत्यु के अधीन कैसे हो गये ? ये वे ही धनंजय मेरी आशालता को छिन्न-भिन्न करके धरती पर पड़े हें; जिन्हें अपना रक्षक बनाकर और जिनका ही भारी भरोसा करके हमलोग ये सारे दुःख सहते आये हैं ।
1826
किसी भी अस्त्र से प्रतिहत न होने वाले, समरांगण में उन्मत्त होकर लड़ने वाले तथा सदैव शत्रुओं का संहार करने वाले वीर थे, वे आज सहसा शत्रु के अधीन कैसे हो गये ? ‘मुझ दुष्ट का हृदय निश्चय की पत्थर और लोहे का बना हुआ है, जो कि आज इन दोनों भाई नकुल और सहदेव को धरती पर पड़ा देख विदीर्ण नहीं हो जाता है । ‘पुरुषसिंह बन्धुओं ! तुम लोग शास्त्रों के विद्वान्, देशकाल को समझने वाले, तपस्वी और कर्मठ वीर थे। अपने योग्य पराक्रम किये बिना ही तुम लोग (प्राणहीन हो) कैसे सो रहे हो ? तुम्हारे शरीर में कोई घाव नहीं है, तुमने धनुष-बाण का स्पर्श तक नहीं किया है तथा तुम किसी से परास्त होने वाले नहीं हो; ऐसी दशा में इस पृथ्वी पर संज्ञाशून्य होकर क्यों पड़े हो ? परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर धरती पर पड़े हुए पर्वत शिखरों के समान अपने भाइयों को इस प्रकार सुख की नींद सोते देखकर बहुत दुखी हुए। उनके सारे अंगों में पसीना निकल आया और वे अत्यन्त कष्टप्रद अवस्था में पहुँच गये।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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