द्वयधिकशततमो (102) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्वयधिकशततमोअध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
कालेयोंद्वारा तपस्वियों, मुनियों और ब्रहृाचारियों आदि संहार तथा देवताओंद्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति
लोमशजी कहते है –राजन्! वरुण के निवासस्थान जलनिधि समुद्र का आश्रय लेकर कालेय नामक दैत्य तीनों लोको के विनाश कार्य मे लग गये । वे सदा रात में कुपित होकर आते और आश्रमों तथा पुण्य स्थानों मे जो निवास करते थे, उन मुनियों को खा जाते थे । उन दुरात्माओं ने वसिष्ठ के आश्रम में निवास करने वाले एक सौ अठ्ठासी ब्राह्माणों तथा नौ दूसरे तपस्वियों को अपना आहर बना लिया । च्यवन मुनि के पवित्र आश्रम में, जो बहुत से द्विज निवास करते थे, जाकर उन दैत्यों ने फल-मूल का आहार करनेवाले सौ मुनियों को भक्षण कर लिया । इस प्रकार वे रात में तपस्वी मुनियों का संहार करते और दिन मे समुद्र के जल में प्रवेश कर जाते थे। भरद्वाज मुनि के आश्रम में वायु और जल पीकर संयम नियम के साथ रहनेवाले बीस ब्रह्मचारियों को कालेयों ने काल के गाल में डाल दिया। इस उन्मत रहनेवाले दानव रात में वहां के निवासियों को सर्वथा कष्ट पहुँचाया करते थे। नरश्रेष्ठ! कालेय दानव काल के अधीन हो रहे थे, इसीलिये वे असंख्य ब्राह्माणों की हत्या करते चले जा रहे थे। मनुष्यों को उनके इस षडयन्त्र का पता नहीं लगता था। इस प्रकार वे तपस्या के धनी तापसों के संहार मे प्रवृत हो हे थे । प्रात:काल आने पर नियमित आहर से दुर्बल मुनिगण अपने अस्थिमात्रावशिष्ट निष्प्राण शरीरों से पृथ्वी पर पडे़ दिखायी देते थे । राक्षसों द्वारा भक्षण करने के कारण उनके शरीरों का मांस तथा रक्त क्षीण हो चुका था। वे मज्ज, आंतो और संधि-स्थानों से रहित हो गये थे। इस तरह सब ओर फैली हुई सफेद हड्डियों के कारण वहां की भूमि शंखराशि से आच्छादित हो रही थी । उलटे-पुलटे पडे़ कलशों, टूटे फूटे स्त्रवों तथा बिखरी पडी़ हुई अग्निहोत्र की सामग्रियों से उन आश्रमों की भूमि आच्छादित हो रही थी । स्वाध्याय और वषटकार बंद हो गये। यज्ञोत्सब आदि कार्य नष्ट हो गये। कालेयों के भय से पीडि़त हुए सम्पूर्ण जगत् में कहीं कोई उत्साह नहीं रह गया था । नेश्वर! इस प्रकार दिन-दिन नष्ट होने वाले मनुष्य भयभीत हो अपी रक्षा के लिये चारों दिशाओं में भाग गये । कुछ लोग गुफाओं में जा छिपे। कितने ही मानव झरनों के आसपास रहने लगे और कितने ही मनुष्य मृत्यु से इतने घबरा गये कि भय से ही उनके प्राण निकल गये ।
इस भूतलपर कुछ महान् धनुधर्र शूरवीर भी थे, जो अन्यन्त हर्ष और उत्साह से युक्त हो दानवों के स्थान का पता लगाते हुए उनके दमन के लिये भारी प्रयत्न करने लगे । परंतु समुद्र में छिपे हुए दानवों वे पकड़ नहीं पाते । उन्होने बहुत परिश्रम किया और अन्त: थककर वे पुन: अपने घर को ही लौट आये । इन्द्र आदि सब देवताओं ने मिलकर भय से मुक्त होने केलिये मन्त्रणा की। फिर वे समस्त देवता सबको शरण देनवाले, शरणगतवत्सल, अजन्मा एवं सर्वव्यापी, अपराजित वैकुण्ठनाथ भगवान् नरायण देव की शरण में गये और नमस्कारा करके उन मधुसूदन से बोले ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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