महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 168 श्लोक 18-35

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अष्‍टषष्‍टयधिकशततम (168) अध्‍याय: उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्‍यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

तुम राग-द्वेष से भरे हुए हो; अत: मोहवश मनमाने ढंग से रथी-अतिरथियों का विभाग कर रहे हो। महाबाहु दुर्योधन ! तुम अच्‍छी तरह विचार कर‍के देख लो । ये भीष्‍म दुर्भाव से दूषित होकर तुम्‍हारी बुराई कर रहे हैं । तुम इन्‍हें अभी त्‍याग दो। नरेश्‍वर ! पुरूषसिंह ! एक बार सेना में फूट पड़ जाने पर उसमें पुन: मेल करना कठिन हो जाता है। उस दशा में मौलिक (पीढियों से चले आने वाले) सेवक भी हाथ से निकल जाते हैं । फिर जो भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों के लोग किसी एक कार्य के लिये उद्यत होकर एकत्र हुए हों, उनकी तो बात ही क्‍या है । भारत ! इन योद्धाओं में युद्ध के अवसर पर दुविधा उत्‍पन्‍न हो गयी है । तुम प्रत्‍यक्ष देख रहे हो, हमारे तेज और उत्‍साह की विशेषरूप से हत्‍या की जा रही है। कहाँ रथियों को समझना और कहाँ अल्‍पबुद्धि भीष्‍म १ मैं अकेला ही पाण्‍डवों की सेना को आगे बढाने से रोक दूंगा। मेरे बाण अमोघ हैं। मेरे सामने आकर पाण्‍डव और पांचाल उसी प्रकार दसों दिशाओं में भाग जायेंगें, जैसे सिंह को देखकर बैल भागते हैं। कहाँ युद्ध, मारकाट और गुप्‍त मंत्रणा में अच्‍छी बातें बताने को कार्य और कहां कालप्रेरित मन्‍दबुद्धि भीष्‍म, जिनकी आयु समाप्‍त हो चुकी है। ये अकेले ही सदा सम्‍पूर्ण जगत के साथ स्‍पर्धा रखते हैं और अपनी व्‍यर्थ दृष्टि के कारण दूसरे किसी को पुरुष ही नहीं समझते हैं। वृद्धों की बातें सुननी चाहिये; यह शास्‍त्रका आदेश है। परंतु जो अत्‍यन्‍त बूढे़ हो गये हैं, उनकी बातें श्रवण करने योग्‍य नहीं है; क्‍योंकि वे तो फिर बालकों के ही समान माने गये हैं। नृपश्रेष्‍ठ ! मैं इस युद्ध में अकेला ही पाण्‍डवों की सेना का  विनाश करूंगा; परंतु सारा यश भीष्‍म को मिल जायेगा। नरेश्‍वर ! तुमने इन भीष्‍म को ही सेनापति बनाया है। विजय का यश सेनापति को ही प्राप्‍त होता है; योद्धाओं को किसी प्रकार नहीं मिलता । अत: राजन्‍ ! मैं भीष्‍म के जीते-जी किसी प्रकार युद्ध नहीं करूंगा; परंतु भीष्‍म के मारे जाने पर सम्‍पूर्ण महारथियों के साथ टक्‍कर लूंगा। भीष्‍म ने कहा—सूतपुत्र ! इस युद्धमें दुर्योधन का यह समुद्र के समान अत्‍यन्‍त गुरूतर भार मैंने अपने कंधो पर उठाया है । जिसके लिये मैं बहुत वर्षों से चिन्तित हो रहा था, वह संतापदायक रोमांचकारी समय अब आकर उपस्थित हो ही गया, ऐसे अवसर में मुझे यह पारस्‍परिक भेद नहीं उत्‍पन्‍न करना चाहिये, इसीलिये तू अभी तक जी रहा है । सूतकुमार ! यदि ऐसी बात न होती तो मैं वृद्ध होने पर भी परक्रम करके आज तुझ बालक की युद्धविषयक श्रद्धा और जीवन की आशा का एक ही साथ उच्‍छेद कर डालता। जमदग्निन्‍दन परशुराम ने मेरे ऊपर बडे़-बडे़ अस्‍त्रों कार्य प्रयोग किया था; परंतु वे भी मुझे कोई पीड़ा न दे सके । फिर तू तो मेरा कर ही क्‍या लेगा? नीचकुलांकर ! साधु पुरूष अपने बल की प्रशंसा करना कदापि अच्‍छा नहीं मानते हैं, तथापि तेरे व्‍यवहार से संतप्‍त होकर मैं अपनी प्रशंसा की बात भी कह रहा हूँ । काशिराज के यहाँ स्‍वंयवर में समस्‍त भूमण्‍डल के क्षत्रिय नरेश एकत्र हुए थे, परंतु मैंने केवल एक रथ पर ही आरूढ होकर उन स‍बको जीतकर बलपूर्वक काशीराज की कन्‍याओं का अपहरण किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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