महाभारत वन पर्व अध्याय 297 श्लोक 94-111

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सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 94-111 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


शुभे ! मझे अपने लिये उतना शोक नहीं है, जितना कि पिता के लिये और उन्हीं का अनुसरण करने वाली दुबली-पतली माता के लिये है। मेरे कारण आज मेरे माता-पिता बहुत संतप्त होंगे। उन्हें जीवित देखकर ही मैं जी रहा हूँ। मुझे उन दोनों का भरण-पोषण करना चाहिये। मैं यह भी जानता हूँ कि माता-पिता का प्रिय कार्य करना ही मेरा कर्तव्य है। मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! यों कहकर धर्मात्मा, गुरुभक्त एवं गुरुजनों के प्रिय सत्यवान् दोनों बाँहें ऊपर उठाकर दुःख से आतुर हो फूअ-फूटकर रोने लगे।। अपने पति को इस प्रकार शोक से कातर हुआ देख धर्मका पालन करने वाली सावित्री ने नेत्रों से बहते हुए आँसुओं को पोंछकर कहा- ‘यदि मैंने कोई तपस्या की हो, यदि दान दिया हो और होम किया हो तो मेरे सास-ससुर और पति के लिये यह रात पुण्यमयी हो। ‘मैंने पहले कभी इच्छानुसार किये जाने वाले क्रीड़ा-विनोद में भी झूठी बात कही हो,मुझे इसका स्मरण नहीं है। उस सत्य के प्रभाव से इस समय मेरे सास-ससुर जीवित रहें।। सत्यवान् ने कहा- सावित्री ! चलो, मैं शीघ्र ही माता-पिता का दर्शन करना चाहता हूँ। क्या मैं उन दोनों को प्रसन्न देख सकूँगा। वरारोहे ! मैं सत्य की शपथ खाकर अपना शरीर छूकर कहता हूँ, यदि मैं माता अथवा पिता का अप्रिय देखूँगा तो जीवित नहीं रहूँगा। यदि तुमहारी बुद्धि धर्म में रत है? यदि तुम मुझे जीवित देखना चाहती हो अथवा मेरा प्रिय करना अपना कर्तव्य समझती हो, तो हम दोनों को शीघ्र ही आरम के समीप चलें। मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! तब पति का हित चिन्तन करने वाली सावित्री ने उठकर अपने खुले हुए केशों को बाँध लिया और दोनों हाथों से पकड़कर पति को उठाया।। सत्यवान् ने भी उठकर एक हाथ से अपने सभी अंग पोंछे और चारों ओर देखकर फलों की टोकरी पर दृष्टि डाली।। तब सावित्री ने उनसे कहा- ‘कल सवेरे फलों को ले चलियेगा। इस समय आपके योग-क्षेम के लिये इस कुल्हाड़ी को मैं ले चलूँगी’। फिर उसने टोकरी के बाझ को पेड़ की डाल में लटका दिया और कुल्हाड़ी लेकर वह पुनः पति के पास आ गयी।। कमनीय ऊरुओं से सुशोभित तथा हाथी के समान मनद गति से चलने वाली सावित्री ने पति की दाहिनी भुजा को अपने कंघू पर रखकर दाहिने हाथ से उन्हें अपनी पाश्र्वभाग में सटा लिया और धीरे-धीरे चलेन लगी। उस समय सत्यवान् ने कहा- भीरु ! बार-बार आने-जाने से यहाँ के सभी मार्ग मेरे परिचित हैं। वृक्षों के भीतर से दिखायी देने वाली चाँदनी से भी मैं रास्तों की पहचान कर लेता हूँ। यह वही मार्ग हे, जिससे हम दोनों आये थे और हमने फल चुने थे। शुभे ! तुम जैसे आयी हो, वैसे चली चलो। रास्ते का विचार न करो। पलाश के वृक्षों के इस वन प्रदेश में यह मार्ग अलग-अलग दी दिशाओं की ओर मुड़ जाता है। इन दोनों में से जो मार्ग उत्तर की ओर जाता है, उसी से चलो और शीघ्रतापूर्वक पैर बढ़ाओ। अब मैं स्वस्थ हूँ, बलवान् हूँ और अपने माता तथा पिता दोनों को देखने के लिये उत्सुक हूँ। मार्कण्डेयजी कहते हैं- ऐसा कहते हुए सत्यवान् बड़ी उतावली के साथ आश्रम की ओर चलने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ सत्तानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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