महाभारत विराट पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-19

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सप्तश (17) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व सप्तशोऽध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! सूतपुत्र सेनापति कीचक ने जबसे लात मारी थी, तभी से यशस्विनी राजपत्नी भामिनी द्रौपदी उसके वध की बात सोचने लगी। वह अपने निवास स्थान पर गयी। उस समय सूक्ष्म कटिभाग वाली द्रुपदकुमार कृष्णा ने वहाँ यथायोग्य शौच स्नान करके जल से अपने शरीर और वस्त्र धोये तथा वह रोती हुई उस दुःख के निवारण का उपाय सोचने लगी- ‘क्या करू, कहाँ जाऊँ ? कैसे मेरा अभीष्ट कार्य होगा, इस प्रकार चिन्तन करके उसने मन-ही-मन भीमसेन का स्मरण किया। ‘भीमसेन के सिवा दूसरा कोई आज मेरे मन को प्रिय लगने वाला कार्य नहीं कर सकता,- ऐसा निश्चय करके वह विशाल नेत्रों वाली सती-साघ्वी सनाथा कृष्णा रात को अपनी शय्या छोड़कर उठी और अपने नाथ (रक्षक) से मिलने की इच्छा रखकर शीघ्रतापूर्वक भीमसेन के भवन में गयी। उस समय मनस्विनी द्रौपदी महान् मानसिक दुःख से पीडि़त थी। वहाँ पहुँचते ही सैरन्ध्री बोली- आर्यपुत्र ! मुझसे द्वेष रखने वाले उस महापापी सेनापति के, जिसने मेरे साथ वैसा अपमान जनक बर्ताव किया था, जीते-जी तुम आज नींद कैसे ले रहे हो ? वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहती हुई मनस्विनी द्रौपदी ने उस भवन में प्रवेश किया, जिसमें सिंह की भाँति साँसें खींचतं हुए भीमसेन सो रहे थे। कुरुनन्दन ! द्रौपदी दिव्य रूप से महातमा भीम की वह पाकशाला शोभा-समृद्धि को प्राप्त होकर तेज से प्रकाशित हो उठी। पवित्र मुसकान वाली द्रौपदी पाकशाला पहुँचकर क्रमशः (बक, साँड और गजराज के पास जाने वाली) जल में उत्पन्न हुई बकी, तीन साल की पार्थिव गौ तथा हथिनी कके समान रेष्ठ पुरुष भीमसेन के समीप गयीं। जैसे लता गोमती के तट पर उत्पन्न एवं खिले हुए ऊँचे शालवृक्ष में लिपट जाती है, उसी प्रकार सती-साध्वी पान्चाली ने मध्यम पाण्डव भीमसेन का आलिंगन किया। उसने उन्हें दोनों भुजाओं से कसकर जगाया; ठीक वैसे ही, जैसे दुर्गम वन में सोये हुए सिंह को सिंहनी जगाती है। जैसे हथिनी महान् गजराज का आलिंगन करती है, उसी प्रकार निर्दोष पान्चालराजकुमारी भीमसेन से सअकर गान्धार स्वर में मधुर ध्वनि फैलाती हुई वीणा की भाँति मीठे वचनों में बोली-‘भीमसेन ! उठो, उठा, क्यों मुर्दे की तरह सो रहे हो ?; क्योकि (तुम्हारे जैसे वीर) पुरुष के जीवित रहते हुए उसकी पत्नी का स्पर्श करके कोई महापापी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता’। 1896 राजकुमारी द्रौपदी के जगाने पर मेघ के समान श्याम वर्ण वाले कुरुनन्दन भीमसेन ताशक बिछे हुए पलंग पर शयन छोड़कर उठ बैइे और अपनी प्यारी रानी से बोले- ‘देवि ! किस कार्य से तुम इतनी उतावली सी होकर मेरे पास आयी हो ? तुम्हारे शरीर की कन्ति स्वाभाविक नहीं रह गयी है। तुम पर उदासी छायी है। तुम दुबली और पीली दिखायी देती हो। पूरी बात बताओ, जिससे मैं सब कुछ जान सकूँ। ‘तुम्हें सुचा हो या दुःख, बुरा हो या भला, सब बातें ठभ्क-ठीक कह जाओ। वह सब सुनकर में उसके निवारण के लिये उचित उपाय सोचूँगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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