महाभारत विराट पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-9

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अष्टदश (18) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व अष्टदशोऽध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी का भीमसेन के प्रति अपने दुःख के उद्गार प्रकट करना वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उस समय लज्जित और भयभीत हुई द्रौपदी के नेत्रों में आँसू भर आये थे। वह मुँह नीचा किये मौन बैठी रही; कुछ भी बोल न सकी। तब पाण्डवप्रवर युधिष्ठिर के परम मित्र भयंकर पराक्रमी महाबली भीम इस प्रकार बोले- ‘सुन्दरि ! गजराज की भाँति लीला-विलासपूर्वक मन्दगति से चलने वाली प्रिये। बताओ; मे तुम्हारा कौन सा प्रिय करूँ ?’। द्रौपदी बोली - जिस स्त्री के पति यूधिष्ठिर हों, वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? तुम मेरे सारे दुःखों को जानते हुए भी मुझसे कैसे पूछते हो ? 1897 दुर्योधन के सेवक के रूप में दुःशासन मुझे दासी कहकर जो उस समय कौरवों की सभाभवन में जनसमाज के भीतर घसीट ले गया, वह अपमान की आग मुझे आज तक जला रही है। शत्रुओं को संताप देने वाले महाबाहु भीम ! उस समय वहाँ बैठे हुए कर्ण आदि क्षत्रियों ने, दुर्योधन ने, मेरे दोनों ससुर भीष्म और बुद्धिमान् विदुर ने तथा द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने भी मुण्े उस दुरावस्था में देखा था। पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार तुम्हारे जीते जी मेरे केश पकड़कर मुझे दोनों श्वसुरों तथा दुर्योधन आदि भ्राताओं के बीच राजसभा में लाया गया। स्वामिन् ! मुझ द्रुपदकन्या को छोड़कर दूसरी मेरी जैसी कौन राजकुमारी होगी, जो ऐसा दुःख भोगकर जी रही हो। वनयात्रा में जाने पर सिन्धुराज जयद्रथ ने जो मेरा स्पर्श कर लिया, यह दूसरा अपमान था। उसे भी कौन सह सकती है ? पाण्डुकुमार ! तुम्हारे जीते जी मुझे हिंसक जन्तुओं से भरे हुए विषम एवं दुर्गम प्रदेशों में पैदल विचरना पड़ा। तदन्न्तर बारहवें वर्ष के अनत में मैं जंगली फल-मूलों का आहार करती हुई इस विराटनगर में आयी और सुदेष्णा की सेविका बन गयी। मैं सत्यधर्म के मार्ग में स्थित होकर आज दूसरी स्त्री की सेवा करती हूँ। पाण्डुपुत्र ! तुम्हारे जीते जी मैं प्रतिदिन राजा विराट के लिये गोशीर्ष, पद्काष्ठ और हरिश्याम आदि चन्दन पीसती हूँ। फिर भी तुम्हारे संतोष के लिये मैं ऐसे बहुत से दुःखों को कुद भी नहीं गिनती। मैं द्रुपद की पुत्री और धृष्टद्युम्न की बहिन हूँ। अग्निकुण्ड से मेरी उत्पत्ति हुई है। मैं कभी धरती पर पैदल नहीं चलती थी (परंतु अब यहाँ यह दुर्दशा भोग रही हूँ)। मत्स्यदेश के राजा विराट के सामने उस जुआरी के देखते-देखते कीचक ने जो लात मारकर मेरा अपमान किया है, उसको सहकर तेरी जैसी कौन राजकुमारी जीवित रह सकती है ? भरतभूषण कुन्तीनन्दन ! ऐसे बहुत से क्लेशों द्वारा मैं निरन्तर पीडि़त रहती हूँ; क्या तुम यह नहीं जानते ? फिर मेरे जीने का ही क्या प्रयोजन है ? भारत ! पुरुष सिंह ! राजा विराट का जो यह कीचक नामक सेनापति है, वह उनका साला भी लगता है। उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है। राजमहल में सैरन्ध्री के वेश में निवास करती हुई मुझे देखकर वह दुष्टात्मा प्रतिदिन ही आकर मुझे देखकर वह दुष्टात्मा प्रतिदिन ही आकर मुझसे कहता है- ‘मेरी ही पत्नी बन जाओ’। शत्रुदमन ! उस मार डालने योग्य पापी के द्वारा रोज-रोज यह घृणित प्रस्ताव सुनते-सुनते समय से पके हुए फल की भाँति मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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